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________________ जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में ज्ञान की क्रमागत अवस्थाओं ... : ८९ फलस्वरूप आत्म-साक्षात्कार की उत्कट इच्छा ही ज्ञान की पहली भूमिका है। इस भूमिका को 'श्रवण' भूमिका भी कहते हैं। २. विचारणा - शास्त्रों के अध्ययन, मनन, सत्पुरुषों के संग तथा विवेकवैराग्यपूर्ण सदाचार में प्रवृत्ति का नाम विचारणा है। दूसरे शब्दों में सत्पुरुषों के संग, सेवा एवं आज्ञापालन, सत्-शास्त्रों के अध्ययन-मनन से, तथा दैवी सम्पदारूप सद्गुण-सदाचार के सेवन से उत्पन्न हुआ विवेक ही 'विचारणा' है। भाव यह है कि सत्-असत् और नित्य-अनित्य वस्तु के विवेचन का नाम विवेक है। विवेक इनको पृथक् कर देता है। सब अवस्थाओं में और प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण आत्मा और अनात्मा का विश्लेषण करते-करते यह विवेक सिद्ध होता है। उपर्युक्त विवेक के द्वारा जब सत्-असत् और नित्य-अनित्य का पृथक्करण हो जाता है, तब असत् और अनित्य से आसक्ति हट जाती है और इस प्रकार इहलोक और परलोक के सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में कामना और आसक्ति का न रहना ही 'वैराग्य' है। महर्षि पतंजलि ने कहा है - दृष्टानुअविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् (योगदर्शन १/१५)। इस प्रकार विवेक-वैराग्य हो जाने पर साधक का चित्त निर्मल हो जाता है। उसमें क्षमा, सरलता, पवित्रता तथा प्रिय-अप्रिय की प्राप्ति में समता आदि गुण आने लगते हैं। प्रथम भूमिका में श्रवण किये हुए महावाक्यों (तत्त्वमसि, अहंब्रह्मास्मि आदि) का निरन्तर मनन और चिन्तन करना प्रधान होने के कारण ही इस दूसरी भूमिका को 'विचारणा' कहा गया है। इसे 'मनन' भूमिका भी कहा जाता है। ३. तनुमानसा - उपर्युक्त शुभेच्छा और विचारणा के द्वारा इन्द्रियों के विषय भोगों में आसक्ति का अभाव होना और अनासक्त हो संसार में विचरण करना तनुमानसा कहलाता है।११ अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त कामना, आसक्ति और ममता के अभाव से, सत्पुरुषों के संग और सत्-शास्त्रों के अभ्यास से तथा विवेकवैराग्यपूर्वक निदिध्यासन-ध्यान के साधन से साधक की बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है तथा उसका मन शुद्ध, निर्मल, सूक्ष्म और एकाग्र हो जाता है, जिससे उसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमात्मतत्त्व को ग्रहण करने की योग्यता अनायास ही प्राप्त हो जाती है। इसे 'निदिध्यासन' भूमिका भी कहा जा सकता है। ___ ये तीनों भूमिकाएँ साधनरूप हैं। इनमें संसार से कुछ सम्बन्ध रहता है, अत: यहाँ तक साधक की 'जाग्रत्-अवस्था' मानी गई है। ४. सत्त्वापत्ति - उपर्युक्त तीनों भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य विषयों में संस्कार न रहने के कारण चित्त में अत्यन्त विरक्ति होने से माया, माया के कार्य और
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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