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________________ ५० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७ यथालब्धोपजीवी स्यान्मुनिर्दान्तोजितेन्द्रिय: २५ अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा चरति यो मुनिः। न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित् ।। २६ यहाँ 'मुनि' शब्द के द्वारा वैदिक परम्परा का 'अवधूत' ही अभिप्रेत है। आत्मदर्शन के प्रकर्ष से इस अवधूत का समस्त वैदिक विधि-निषेध गलित हो जाता है और वह 'अतिवर्णाश्रमी' की संज्ञा प्राप्त करता है।२७ ऐसे प्राज्ञ के लिए फिर वेश का बन्धन नहीं रहता वह चाहे जीर्णकौपीन मात्र को धारण करे या नग्न हो जाय, जटाएँ रखे या मुण्डित मस्तक हो जाय उसके स्वरूप में तत्त्वत: कोई अन्तर नहीं पड़ता जीर्णकोपीनवासाः स्यान्मुण्डी नग्नोऽथ वा भवेत्। प्राज्ञो वेदान्तवियोगी निर्ममो निरहङ्कतिः।। २८ यही बात ‘जाबालोपनिषद्' में कही गई हैविवर्णबासा मुण्डोऽपरिग्रहः शुचिरद्रोही भैक्षाणो ब्रह्मभूयाय भवति।२९ इस उपनिषद् में ऐसे परमहंसो अर्थात् वैदिक श्रमणों को एक सूची दी गई है, यथा तत्रपरमहंसा नाम संवतकारुणिश्वेतकेतुदुर्वास ऋभुनिदाघजडभरत दत्तात्रेयरैवतक प्रभृतयोऽव्यक्तलिङ्गा अव्यक्ताचारा अनुन्मत्ता उन्मत्तवदाचरन्तस्त्रि दण्डं कमण्डलुं शिक्यं पात्रं जलपवित्रं शिखां यज्ञोपवीतं चेत्येतत्सर्व भूः स्वाहेत्यप्सु परित्यज्यात्मान मन्विच्छेत्। आधुनिक दृष्टि से इन उपनिषदो से पूर्ववर्ती कही जाने वाली मुण्डकादि उपनिषदों में भी ब्राह्मण के द्वारा कालान्तर में यज्ञयागादि से ऊपर उठकर अरण्यसेवन, भैक्ष्यचर्या आदि करते हुए ब्रह्मविज्ञान की ओर जाने का निर्देश किया गया है तपः श्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये शान्ता विद्वांसो भैक्ष्यचर्यां चरत्नः। परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायानास्त्यकृतः कृतेन।" इस प्रकार वैदिक श्रमण-परम्परा वेद से लेकर सतत अव्याहत रूप से प्रवर्त्तमान है, अतएव श्रमण-परम्परा को अवैदिक या वेद-विरोधी कहना कथञ्चिदपि न्याय नहीं है।
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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