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वैदिक श्रमण परम्परा और उसकी लोक- यात्रा 40 ४९
वैदिक-परम्परा के श्रमण थे किन्तु कतिपय कोमलबुद्धि लोग उनको न समझ सके और उनके नाम पर एक नवीन, पाषण्डप्रवण और अवैदिक मत चला दिया। श्रीमद्भागवत के पञ्चम और एकादश स्कन्धों में इन्ही ऋषभदेव के नव योगीश्वर पुत्रों कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र द्रमिल, चमस और करभाजन को भी ‘श्रमणा:' और 'वातरशना': कहा गया है जो कि सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि रखने वाले वैदिक पद्धति के ही मुनि थे -
श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदाः ।। कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः । आविर्होत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः ।।
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इस प्रकार संहिता से लेकर इतिहास-पुराण और आगे के वैदिक साहित्य तक समृद्धरूप में वैदिक श्रमणों की परम्परा दिखलाई पड़ती है । श्रीविष्णुपुराण में तथा पूर्वोक्त श्रीमद्भागवत के प्रसङ्गों में अवैदिक श्रमणों को इनसे पृथक् स्वीकार किया गया है और उनकी वेशभूषा और आचार-विचारों का परिचय दिया गया है। विष्णुपुराण के अनुसार वैदिकधर्म में संलग्न असुरों का बल कम करने के लिए भगवान् नारायण ने ही अपनी शक्ति से मायामोह - सञ्ज्ञक एक छद्ममुनि को प्रकट किया जिसने नास्तिक मत का प्रवचन करके उन्हें अर्थात् असुरों को व्यामुग्ध कर लिया
ततो दिगम्बरो मुण्डी बर्हिपिच्छधरो द्विज ।
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मायामोहोऽसुरान् श्लक्ष्णमिदं वचनमब्रवीत् ।
श्री वाल्मीकि कृत रामायण में भी दशरथजी के यज्ञ में ब्राह्मण और तपस्वियों के साथ श्रमणों के भी नित्य भोजन करने की बात कही गई है -
ब्रह्मणा भुञ्जते नित्यं नाथवन्तश्च भुञ्जते ।
तापसा भुञ्जते चापि श्रमणाश्चैव भुञ्जते ।।
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इस प्रकार वैदिक श्रमणों की एक समृद्ध परम्परा आरम्भ से सतत प्रवर्त्तमान रही है जो विकासवादी शोध-पद्धति की भाषा में आगे चलकर संन्यास धर्म में प्रतिष्ठित हो गई । वस्तुतः उपनिषदों में स्पष्ट तथा विशद रूप से यती और संन्यासी के साथ-साथ अवधूतों की चर्य्या का प्रतिपादन प्राप्त होता है । नारदपरिव्राजकोपनिषद् में 'संन्यास ' की विशद् और तात्त्विक समीक्षा करते हुए छह प्रकार के संन्यासों का विवेचन किया गया है। २४ यहाँ 'अवधूत' या 'परमहंसा' को सर्वत्यागी और दिगम्बर कहा गया है