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वैदिक श्रमण-परम्परा और उसकी लोक-यात्रा : ५१
हमारा मानना है कि प्राचीनकाल से ही एक ऐसी श्रमण-परम्परा भी समानान्तर रूप से चलती रही है जिसने वेद को प्रमाण न मानते हुए अन्त:करण की वैयक्तिक अनुभूति और स्वतन्त्र चिन्तन को महत्त्व दिया और विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में अपने स्वरूप को विशद् और लोकप्रिय बनाते हुए यथासम्भव अपने अनुयायियों में वृद्धि की। आर्हत् और बौद्ध-परम्परा ऐसी ही श्रमण परम्पराएँ हैं। इन्होंने वेद की अवहेलना और गर्दा करते हुए भी अधिकांश बातें यथावत् स्वीकार कर ली
और बाद में अपना दर्शन देवशास्त्र और उपासना-पद्धति के साथ कहीं-कहीं नवीन ढंग का आचार भी विकसित कर लिया। जैसे इस परम्परा के यतियों ने अपने को 'ऋषि' 'सन्नयासी' 'अवधूत' या 'परमहंसो' का अभिधान न देकर 'भिक्ष', 'परिव्राजक', 'श्रमण' या 'मुनि' ही कहा। यद्यपि ये समग्र अभिधान (जैसा कि हम पहले निरूपित कर आए हैं) वैदिक-परम्परा के निवृत्तिमार्गियों के लिए भी स्वीकृत थे, किन्तु बहुत दिनों तक अवैदिक निवृत्तिमार्गियों द्वारा व्यवहत होते हुए समयान्तर में ये उन्हीं के लिए रूढ़ हो गए और इसी कारण से वैदिक परम्परा ने भी इन्हें उपेक्षित कर दिया।
यह सर्वविदित है कि “तद् विष्णोःपरमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः" इस ऋग्वेद के मन्त्र में सर्वप्रथम विद्वान् के लिए 'सूरि' शब्द का प्रयोग हुआ है। इस अर्थ में यह शब्द श्रीमद्भागवत तक प्रयुक्त होता रहा
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः३२
किन्तु आज यह जैन मुनियों के विशेषण के रूप में रूढ़ हो गया है। 'निर्ग्रन्थ' (निर्गठ)- शब्द भी श्रीमद्भागवत महापुराण में शुकदेव सदृश ब्रह्मज्ञानियों के लिए प्रयुक्त हुआ है किन्तु आज यह वैदिक परम्परा में उपेक्ष्य हो गया है। ठीक इसी प्रकार 'मुनि' और 'श्रमण' शब्द भी पूर्णतया वैदिक परम्परा के होकर भी जैन परिव्राजकों के लिए तथा भिक्षु और परिव्राजक शब्द बौद्धों के लिए स्थिर हो गए अतएव कतिपय शताब्दियों पूर्व से वैदिकों ने इन शब्दों को व्यवहत करना या तो समाप्त कर दिया या कम कर दिया।
__महाराज भोज से अवान्तरकालीन कश्मीरी पण्डित मम्मटभट्ट के समय तक स्थिति ऐसी हो गई थी कि उस समय 'ब्राह्मण' और 'श्रमण' दोनों शब्द परस्पर विरोधी सम्प्रदायों को व्यक्त करने लगे थे। मम्मट के 'काव्यप्रकाश' में भूतपूर्व अर्थ को प्रतिपादित करने के लिए 'ब्राह्मण श्रमणन्याय' की चर्चा की गई है। आगे चलकर यहीं से भेद और भ्रम का पल्लवन और पष्पन होता गया और पाश्चात्य समीक्षकों ने 'ब्राह्मण'और 'श्रमण' दोनों धाराओं को परस्पर विरोधी धाराओं के रूप में निरूपित किया। वस्तुत: अ-वैदिक आर्हत् और सौगत परम्परा से पृथक् वैदिक श्रमण-परम्परा