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________________ धार्मिक सहिष्णुता और धर्मों के बीच मैत्रीभाव - जैन-दृष्टिकोण : ३९ पारस्परिक सहयोग : प्राणी-जगत् का मूलभूत स्वभाव जैनाचार्यों की दृष्टि में पारस्परिक सहयोग और सह-अस्तित्व जीव-जगत् के मूलभूत तत्त्व हैं। डार्विन का यह कथन कि 'अस्तित्व के लिए संघर्ष और संस्कृत कहावत 'जीवोजीवस्य भोजनम्' उन्हें स्वीकार नहीं है। वे निश्चयात्मकतापूर्वक कहते हैं कि संघर्ष नहीं, अपितु पारस्परिक-सहयोग ही जीवन का शाश्वत नियम है। आचार्य उमास्वाति (ईसा की चौथी शताब्दी) उनके द्वारा लिखित ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि पारस्परिक-सहयोग ही जीवन का स्वभाव है। (परस्परोपग्रहो जीवानाम्) जीवन की उत्पत्ति, विकास और उसका अस्तित्व जीवन के दूसरे रूपों के सहयोग पर ही आधारित है। मानव-समाज के सन्दर्भ में भी यही बात लागू होती है। समाज का अस्तित्व और उसका विकास सभी लोगों के पारस्परिक-सहयोग, एक-दूसरे के लिए त्याग एवं सम्मान की भावना पर निर्भर है। यदि हम सोचते हैं कि हमें दूसरों के सहयोग की जरूरत है, तो अन्य लोगों का सहयोग करना भी हमारा नैतिक कर्तव्य है। जीवन की समानता के सिद्धान्त का अभिप्राय यही है कि आपको जीने का जितना अधिकार है, दूसरे प्राणियों को भी जीने का उतना ही अधिकार है। इस सिद्धान्त के प्रकाश में हम यह कह सकते हैं कि किसी भी मनुष्य को दूसरे मनुष्य की, यहाँ तक कि प्राणीमात्र की हिंसा करने का कोई अधिकार नहीं है, अत: जैनाचार्यों के अनुसार जीवन-यात्रा का सिद्धान्त “दूसरे जीवों पर भार बनकर' या 'दूसरे जीवों को मारकर' जीना नहीं होकर 'दूसरों के साथ जीना' या 'दूसरों के लिए जीना' रहा है। वे उद्घोष करते हैं कि 'पारस्परिक-सहयोग और सह-अस्तित्व प्राणीजगत् के मूलभूत तत्त्व हैं। यदि ऐसा है, तो हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि धार्मिक-समन्वय और सभी धर्मों के बीच मैत्रीभाव ऐसे सिद्धान्त हैं, जिनका पालन प्रत्येक मनुष्य को हृदय से करना चाहिए। एक विश्वधर्म : एक कल्पनामात्र है धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा को रोकने एवं संघर्षों को समाप्त करने के लिए कुछ लोग एक विश्वधर्म का नारा देते हैं। परन्तु न तो यह संभव है और न ही व्यावहारिक। जब विचारों एवं आदतों, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और बौद्धिक स्तर को लेकर मनुष्यों में विविधता विद्यमान है, तो धार्मिक विचारधाराओं एवं साधनापद्धतियों में भित्रता स्वाभाविक है। समदर्शी आचार्य हरिभद्र स्पष्ट रूप से कहते हैं, 'ऋषियों के उपदेशों में जो भिन्नता है, वह उपासकों की योग्यताओं की भिन्नता या उनके स्वयं के द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण में भिन्नता या देश कालगत भिन्नता के आधार पर है। जिस प्रकार से एक वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों को उनकी प्रकृति की
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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