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________________ ३८ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७ आप में अनेकता में एकता है । निरपेक्ष- एकता, अर्थात् अद्वैतवाद एवं निरपेक्षअनेकता, अर्थात् बहुतत्त्ववाद- इन दोनों ही सिद्धान्तों से जैन विचारक सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार सामान्य दृष्टि से तो सत् एक ही है, परन्तु विशेष दृष्टि से वह अनेक भी है। एक बार भगवान् महावीर से प्रश्न पूछा गया था कि भगवन्! आप एक हैं या अनेक? भगवान् महावीर ने उत्तर दिया था - 'तात्त्विक विचारणा से तो मैं एक हूँ, परन्तु शरीर एवं मन की बदलती हुई पर्यायों की विचारणा से मैं प्रतिपल भिन्नता को प्राप्त कर रहा हूँ, इस प्रकार से अनेक भी हूँ।' इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए आचार्य मल्लिषेण कहते हैं - 'जो एक है, वही अनेक भी है। " वस्तुत:, अनेकता में एकता ही प्रकृति का नियम है। प्रकृति तो सर्वत्र एक ही है, परन्तु उसमें अनेकता है, क्योंकि प्राकृतिक घटनाएँ एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। यही बात मनुष्य के सन्दर्भ में भी लागू होती है । यद्यपि सभी व्यक्तियों में कुछ सामान्य और विशिष्ट गुण होते हैं, तथापि वैयक्तिक आधार पर प्रत्येक व्यक्ति उसमें रहे हुए विशेष गुणों के कारण एक-दूसरे से भिन्न होता है। विश्व के सभी धर्मों के बारे में भी यही ध्रुवसत्य है। सभी धर्मों में कुछ सार्वभौमिक तत्त्व समान हैं, यही उनकी मूलभूत एकता है, साथ ही प्रत्येक धर्म की अपनी-अपनी विशिष्टताएं भी हैं, जो उसे दूसरे धर्म से अलग करती हैं, इस दृष्टि से धर्म अनेक भी है। आपसी भाईचारा, जरूरतमंदों की सेवा, सत्यवादिता, ईमानदारी, इन्द्रियों पर नियंत्रण आदि सर्वमान्य सद्गुण विश्व के सभी धर्मों में समान रूप से प्रतिपादित हैं, जिनके आधार पर प्रत्येक धर्म के लोग अपने से भिन्न धर्म के लोगों के साथ सद्व्यवहार कर सकते हैं और यही उनकी मूलभूत एकता है। दुर्भाग्य से, वर्तमान समय में इन सभी सर्वमान्य सद्गुणों को तो, जो कि धर्म के सारतत्त्व हैं, हम भुला चुके हैं और बाह्य विधि-विधान या आडम्बरों को, जो कि प्रकृति में भिन्न-भिन्न हैं, अधिक महत्त्व दे रहे हैं। इस प्रकार हम, सभी धर्मों में सामान्य रूप से अन्तर्निहित सद्गुणों पर आधारित एकता को भूलकर बाहरी भिन्नताओं को पकड़कर अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। परिणामस्वरूप पारस्परिक - विद्वेष की खाई गहरी होती जा रही है। यद्यपि मैं सभी धर्मों में निहित मूलभूत एकता पर जोर दे रहा हूँ, किन्तु इसका कदापि यह अभिप्राय नहीं है कि मैं एक विश्वधर्म का समर्थन करता हूँ या भिन्न-भिन्न धर्मों की विशिष्टताओं एवं विविधताओं को चोट पहुँचा रहा हूँ। वस्तुतः मैं यह कहना चाहता हूँ कि निरपेक्ष- एकता और निरपेक्ष- अनेकता - दोनों ही भ्रामक अवधारणाएं हैं तथा धर्मों के बीच मैत्रीभाव का अर्थ अनेकता में ही एकता को देखना है ।
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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