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________________ धार्मिक-सहिष्णुता और धर्मों के बीच मैत्रीभाव - जैन-दृष्टिकोण : ३७ २. सच्ची श्रद्धा ३. इन्द्रियसंयम तथा ४. आत्मशुद्धि हेतु प्रयत्न या पुरुषार्थ। इस प्रकार हम देखते हैं कि धार्मिक होने की उपर्युक्त चार शर्तों में मानवता का स्थान ही सबसे पहला है। जैनधर्म में धर्म को 'वस्तु का स्वभाव' के रूप में परिभाषित किया गया है। (वत्थु सहावो धम्मो) - इस परिभाषा के आलोक में कहा जा सकता है कि मानवता मनुष्य का वास्तविक धर्म है, क्योंकि यही उसका स्वभाव है। मनुष्य होने के नाते, यदि हम मनुष्य के समान व्यवहार नहीं करते हैं, तो हमें धार्मिक कहलाने का, यहां तक कि मनुष्य कहलाने का भी कोई अधिकार नहीं है। इस सन्दर्भ में हमारे युग के प्रसिद्ध दार्शनिक एवं वैज्ञानिक बट्रेण्ड रसेल के निम्न वक्तव्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है। वे कहते हैं - 'मैं एक मनुष्य होने के नाते, मैं मनुष्यों से अनुरोध करता हूँ कि हम अपनी मानवता को याद रखें और शेष सब कुछ भूल जाएं। यदि हम ऐसा कर सकते हैं, तो हमारे जीवन में स्वर्ग का एक नवद्वार उद्घाटित होगा और यदि नहीं, तो सार्वभौमिक मृत्यु के अलावा हमारे समक्ष अन्य कुछ भी विकल्प नहीं है। इस प्रकार मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि मानवता ही हमारा सबसे पहला धर्म है। मानवता क्या है? यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि मानवता शब्द से हमारा क्या तात्पर्य है? इसका उत्तर सरल है। मानवता अपने-आप में कुछ भी नहीं है, अपितु मनुष्य के व्यवहार में आत्मचेतना, विवेकशीलता और आत्मसंयम की उपस्थिति ही मानवता है। हमारे युग के सभी मानवतावादी विचारकों द्वारा मनुष्य को दूसरे प्राणियों से मनोवैज्ञानिक आधार पर अलग करने के लिए इन तीनों गुणों को आधारबिन्दु के रूप में मान्य किया गया है। इन तीनों मूलप्रवृत्तियों को ही जैनधर्म की त्रिरत्नअवधारणा में समझाया गया है, जो क्रमश: इस प्रकार है - सम्यक्-दर्शन (आत्मजाग्रति), सम्यक्-ज्ञान (विवेक) और सम्यक्-चारित्र (संयम)। ये त्रिरत्न ही मनुष्य की मुक्ति का मार्ग बनते हैं और उसे यथार्थ में मनुष्य बनाते हैं। किसी मनुष्य के आचरण में इन तीनों गुणों की उपस्थिति उसे पूर्ण मानव का दर्जा प्रदान करती हैं और यही मानवता है। मैत्रीभाव : अनेकता में एकता जैन विचारक दृढ़ता से यह कहते हैं कि अनेकता में ही एकता अन्तर्निहित है। उनके अनुसार एकता और अनेकता एक ही सत्ता के दो पहलू हैं। सत्ता अपने
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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