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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
के तीन प्रकार - दैहिक, वाचिक, मानसिक एवं तामसिक, राजसिक और सात्त्विक तप का विवरण प्रस्तुत किया गया है।१९ दैहिक तप के अंतर्गत पवित्रता, सरलता तथा ज्ञानीजनों की पूजा-सेवा करने की प्रवृत्ति का होना और वाणी विषयक तप के अंतर्गत स्वाध्याय, अकषायी तथा सुभाषी होना आवश्यक है। मानसिक प्रसन्नता, भगवद्-चिंतन, शांति, मनोनिग्रह और पवित्रता को मानसिक तप कहा गया है। अहिंसा, सत्य तथा ब्रह्मचर्य का निष्कामभाव से पालन करना सात्त्विक तप है। मान, प्रतिष्ठा या अन्य प्रलोभनवश तप करना राजसिक तप है। स्वयं को तथा अन्य को तप द्वारा पीड़ा पहुँचाना तामसिक तप है। सात्त्विक तप सभी तपों में श्रेष्ठ है। यही आत्मशुद्धि का सर्वश्रेष्ठ साधन है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वैदिक परम्परा में तप को वर्गीकृत करते हुए इसे आत्मशुद्धि का सर्वश्रेष्ठ साधन माना गया है जो अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, मनोनिग्रह, भगवद्-चिंतन, पूजा-अर्चन, स्वाध्याय, अकषाय, पवित्रभावना, सरलता, शांति जैसे सद्गुणों से परिपूर्ण होता है।
बौद्धों ने तप का आश्रय चित्तशुद्धि के लिए लिया है। तप को यहाँ चित्तशुद्धि के सतत् प्रयत्न के रूप में व्याख्यायित किया गया है। यहाँ यह भी बताने का प्रयत्न हुआ है कि तप करने से कुशल धर्म बढ़ते हैं तथा अकुशल धर्म घटते हैं। यही कुशल और अकुशल धर्म तथा इनका संयमन एवं उच्छेदन बौद्ध परम्परा में तप को वर्गीकृत करने का मुख्य कारक बनता है। बौद्धों ने तप के चार प्रकार बताए हैंआत्मन्तप, परन्तप, आत्मन्तप-परन्तप एवं न आत्मन्तप-न परन्तप। आत्मन्तप में स्वयं को कष्ट दिया जाता है। परन्तप में दूसरों को पीड़ा पहँचायी जाती है। तृतीय प्रकार के तप में स्वयं एवं दूसरों को साथ-साथ कष्ट पहुँचाया जाता है। चौथे प्रकार में न तो स्वयं को कष्ट दिया जाता और न दूसरों को ही कष्ट प्रदान किया जाता है। तप का यही चतुर्थ स्वरूप बुद्ध को स्वीकार्य रहा है। वस्तुतः तप आत्मशुद्धि का वह सर्वसुलभ साधन है जिसे अपनाते हुए स्व और पर किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता।
जैन मत में तप के दो प्रकार हैं - (क) बाह्य तप और (ख) आभ्यन्तर तप। बाह्य तप छह प्रकार के हैं - १. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रस-परित्याग, ५. विविक्तशय्यासन तथा ६. कायक्लेशा आभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं - ७. प्रायश्चित्त, ८. विनय, ९. वैयावृत्य, १०. स्वाध्याय, ११. व्युत्सर्ग और १२. ध्यान।२२ बाह्य तप का उद्देश्य शारीरिक विकारों को नष्ट कर इन्द्रियसंयम को प्राप्त करना है। आभ्यंतर तप द्वारा कषाय, प्रमाद, आदि विकारों को नष्ट किया जाता है। बाह्य तप आंतरिक तप में सहायक या पूरक होते हैं। जैन विवेचित कुल बारह प्रकार के तपों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - अनशन का अर्थ आहार