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तप : साधन और समाधान : १५
हरवं तपश्चर्या के संबंध में बुद्ध का जो भी मंतव्य रहा हो, लेकिन हमें त्रिपिटक साहित्य में तप एवं तपस्या के विविध रूपों का दिग्दर्शन अनेक स्थलों पर मिलता है।१५
तप और तपश्चर्या जैन परम्परा का मूलाधार है। मोक्ष जिसे चरम लक्ष्य माना जाता है, जैनों के मतानुसार इसकी प्राप्ति तप एवं तपस्या के द्वारा ही संभव है। निर्वाण प्राप्ति हेत कर्मों को निर्जरित करना पड़ता है। तप से समस्त कर्मों की निर्जरा होती है। १६ तप से शरीर एवं इन्द्रियों का संयम सधता है। इस हेतु जो भी शारीरिक कष्ट उठाया जाता है, वही तप है।२७ तप के अभ्यास से आत्मा परिशुद्ध होती है।१८ वस्तुत: तपस्या के अनुक्रम में जो भी शारीरिक कष्ट भोगा जाता है उसके पीछे इन्द्रिय-दमन का उद्देश्य निहित रहता है। शारीरिक, प्राकृतिक अथवा अन्यकृत पीड़ा एवं कष्ट को सहन करने की सामर्थ्य प्राप्त करना ही तप अथवा तपश्चर्या का मूल मंतव्य है। इसके पीछे यह भाव रहता है कि मन हमेशा पवित्र रहे, इन्द्रियों की विकारशक्तियों का ह्रास हो एवं दैनिक चर्या में शिथिलता न आने पाए। तप के प्रकार __ आवश्यकतानुसार तप के विभेद किए गए हैं। जैन परम्परा में इस हेतु - बाह्य
और आभ्यन्तर तप का उल्लेख है। बौद्धों ने तप का वर्गीकरण तप की श्रेष्ठता एवं निकृष्टता को आधार बनाकर किया है। वैदिक परम्परा में इन सबसे अलग मनुष्य की दैहिक, वाचिक एवं मानसिक अवस्था को आधार बनाते हुए तप को वर्गीकृत करने का प्रयत्न हुआ है। वस्तुत: तप के ये भेद शारीरिक विकारों एवं मानसिक वृत्तियों के दमन करने के उद्देश्य व साधकों को मतिभ्रम से पृथक् रखने हेतु किया गया प्रतीत होता है। तप के विविध प्रकार क्रमश: अभ्यास करने योग्य नहीं हैं। अगर हम शारीरिक-विकारों को नष्ट करते हैं और ऐन्द्रिक वृत्तियों पर रोक नहीं लगाते हैं तो हमारा यह तपाभ्यास अधूरा एवं निष्प्रयोज्य ही माना जाएगा, क्योंकि इन्द्रियाँ दैहिकविकार को कभी शान्त नहीं होने देंगी। यही बात आगे भी प्रयुक्त मानी जा सकती है। फिर भी तप के जो विविध भेद विवेचित हैं उनका अपना महत्त्व है और तपश्चर्या की दिशा में एक मूलभूत योगदान भी है।
जहाँ तक वैदिक परम्परा का प्रश्न है यहाँ तप का वर्गीकरण नहीं किया गया है। साधना की उग्रता, कालगत अवधि एवं इसी तरह के अन्यान्य कारणों के आधार पर उग्र तप, मध्यम तप, मृदु तप आदि के रूप में तप के विविध भेद अवश्य मिलते हैं। इनके अतिरक्ति तप को वर्गीकृत करने का कोई और आधार वैदिक परम्परा में रहा हो तो इस दिशा में विशेष चिन्तन-मनन की अपेक्षा से इन्कार नहीं किया जा सकता है। इसी अनुक्रम में गीता का उद्धरण प्रस्तुत किया जा सकता है, जहाँ तप