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________________ १४ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७ है जिसकी सहायता से शरीर एवं इंद्रियों की शुद्धि एवं सिद्धि होती है। तप के इस अर्थ को स्वामिकार्तिकेय ने इस प्रकार विवेचित किया है - 'तप का तात्पर्य अपनी इंद्रियों के विषयों को तपाकर आत्मशुद्धि करने से है। तप की आराधना अनेक प्रकार के काय-क्लेषों द्वारा होती है जिनमें इहलोक या परलोक के सुख की अपेक्षा नहीं होती। तप, तपश्चर्या और समाधान तप का अभ्यास तपश्चर्या के नाम से जाना जाता है। तप के ज्ञान मात्र से तप के फल की प्राप्ति शायद ही कभी संभव हो। यही कारण है कि जहाँ कहीं भी तप का उल्लेख हुआ है वहाँ प्राय: तपश्चर्या अथवा तपस्या के विधान पर भी चिन्तन हुआ है। वैदिक ऋचाओं में एक तरफ 'ऋत्' और 'सत्' की उत्पत्ति के लिए 'तपस्या' को कारण माना गया है तो दूसरी तरफ आत्मा को तप से तेजस्वी करने का संदेश भी दिया गया है। वस्तुत: तप एवं तपश्चर्या की यह धारणा वैदिक परम्परा में विवेचित 'यज्ञ' के विधान के साथ परिस्थिति वशात् सम्मिलित होकर ज्ञानाराधना के रूप में आयोजित होने लगी। बाद में तप का स्वरूप परिवर्तित हुआ और तपस्या का अर्थ देह-दमन के रूप में प्रायोजित होने लगा। पुनश्च आध्यात्मिक-उत्क्रान्ति के युग में तप इंद्रिय-दमन का सबल साधन बन गया। इस प्रकार तपस्या देह-दमन और इंद्रिय-दमन के लिए सेवन किया जाने लगा। उपनिषद् काल में तप के इस विधान को ब्रह्म के साथ एकाकार करके यह विचार प्रस्तुत किया गया कि तप के द्वारा ही ब्रह्म प्रबुद्ध होता है।२१ तपस्वी को तप के साथ श्रद्धायुक्त होना अपेक्षित है।१२ आगे चलकर तप का यह चिंतन शद्धि, सिद्धि एवं लक्ष्य प्राप्ति के साधन के रूप में रूढ़ हुआ जिसमें शरीर-दमन के साथ-साथ ऐन्द्रिक विषयों को जीर्ण करने का भाव संपृक्त हो गया। इस प्रकार तपस्या के लिए श्रद्धा का होना आवश्यक माना जाने लगा। चित्तशुद्धि आध्यात्मिक-विकास के लिए अनिवार्य अपेक्षा है। चित्तशुद्धि के लिए सतत प्रयत्न करना ही बौद्धों के लिए तप है। तप एवं तपश्चर्या के रूप में बौद्धों ने विविध प्रकार के विधान प्रस्तुत किए हैं। तप को ब्रह्मचर्य, चार आर्यसत्य, निर्वाण के समान मंगलकारी माना गया है।१३ आत्मा की अकुशलवृत्तियों एवं पापवासनाओं को नष्ट करने हेतु तपस्या का विधान प्रस्तुत किया गया है। जैसा कि यह विदित है कि - प्रारंभ में बुद्ध ने देह-दमन के लिए तप का अभ्यास किया था, परंतु जब उन्हें उससे समस्या का समाधान प्राप्त नहीं हुआ, तब उन्होंने मध्यम-मार्ग का प्रतिपादन किया। इस आधार पर यह चिंतन प्रस्तुत किया जाता है कि बुद्ध की तपस्या में शारीरिक यंत्रणा का भाव नहीं था। किन्तु वह सर्वथा सुखसाध्य भी नहीं था। तप
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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