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________________ १२४ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७ और प्रमाणशास्त्र का समर्थन किया। तत्पश्चात् दिङ्नाग के टीकाकार धर्मकीर्ति का न्याय के क्षेत्र में पदार्पण हुआ। इसके बाद तो एक ओर धर्मकीर्ति की शिष्य परम्परा के दार्शनिक अर्चट, धर्मोत्तर, शान्तरक्षित, प्रज्ञाकर आदि हुए जिन्होंने धर्मकीर्ति के पक्ष की रक्षा की तथा बौद्ध प्रमाणशास्त्र को स्थिर किया तो दूसरी ओर प्रभाकर, व्योमशिव, जयन्त, सुमति, पात्रस्वामी, मंडन आदि बौद्धेतर दार्शनिक हुए जिन्होंने अपने दर्शन की रक्षा की। यह वाद-प्रतिवाद जब तक बौद्ध दार्शनिक भारत छोड़कर बाहर नहीं चले गए, बराबर चलता रहा। इस दीर्घकालीन संघर्ष में जैनों ने भी भाग लिया और अपना प्रमाणशास्त्र व्यवस्थित किया। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने (ई० ७वीं सदी) अनेकान्त और नय आदि का विवेचन किया तथा प्रत्येक प्रमेय में उसे लगाने की पद्धति भी बतायी। उन्होंने लौकिक इन्द्रिय प्रत्यक्ष को जो अभी तक परोक्ष कहा जाता था और जिसके कारण लोक व्यवहार में असमंजसता थी, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की संज्ञा दी, अर्थात् आगमिक परिभाषा के अनुसार यद्यपि इन्द्रियजन्य ज्ञान परोक्ष ही है तो भी व्यवहार के निर्वाहार्थ उसे संव्यवहार प्रत्यक्ष कहा जाता है। भट्ट अकलंकदेव जैन प्रमाणशास्त्र प्रतिष्ठापक माने जाते हैं। अकलंक ने प्रमाण व्यवस्था के लिए 'लघीयस्त्रय', 'न्यायविनिश्चिय' एवं 'प्रमाणसंग्रह' लिखा और 'सिद्धिविनिश्चय' नामक ग्रन्थ लिखकर उन्होंने जैन दार्शनिक मन्तव्यों को विद्वानों के सामने अकाट्य प्रमाण पूर्वक सिद्ध किया । उन्होंने अपने 'लघीयस्त्रय' (का० ३ / १०) में प्रथमत: प्रमाण के दो भेद किये फिर प्रत्यक्ष के स्पष्ट रूप से मुख्य प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ये दो भेद किये। परोक्ष प्रमाण के भेदों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम को अविशद् ज्ञान होने के कारण स्थान दिया। इस तरह प्रमाणशास्त्र की व्यवस्थित रूप रेखा यहाँ से प्रारम्भ होती है। 'अनुयोगद्वार', 'स्थानांग' और 'भगवतीसूत्र' में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इन चार प्रमाणों का निर्देश मिलता है। यह परम्परा 'न्यायसूत्र' की है। 'तत्त्वार्थभाष्य' में इस परम्परा को 'नयवादान्तरेण' रूप से निर्देश करके भी इसको स्वपरम्परा में स्थान नहीं दिया है और न उत्तरकालीन किसी जैन ग्रन्थ में इनका कुछ निर्णय या निर्देश ही है। समस्त उत्तरकालीन जैन दार्शनिकों ने अकलंक द्वारा प्रतिष्ठापित प्रमाण-पद्धति को पल्लवित और पुष्पित करके जैन न्याय को विकसित किया है।
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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