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________________ जैन दार्शनिक चिन्तन का ऐतिहासिक विकास-क्रम : १२३ सप्तभंगी की योजना कर किया। समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा अनेकान्त की प्रतिष्ठा करने वाला श्रेष्ठ ग्रन्थ माना गया है। स्वामी समन्तभद्र ने एकान्तवादों की आलोचना के साथ ही साथ अनेकान्त का स्थापन, स्याद्वाद का लक्षण, सुनय-दुर्नय की व्याख्या और अनेकान्त में अनेकान्त की प्रक्रिया बताई। उन्होंने बुद्धि और शब्द की सत्यता और असत्यता का आधार मोक्षमार्गोपयोगिता की जगह बाह्यार्थ की प्राप्ति और अप्राप्ति को बताया है। समन्तभद्र ने स्वपरावभासक बुद्धि ज्ञान प्रमाण है, यह प्रमाण का लक्षण स्थिर किया तथा अज्ञान निवृत्ति इस उपादान और उपेक्षा को प्रमाण का फल बताया । सन्मति के टीकाकार वादप्रवीण मल्लवादी ने 'नयचक्र' नामक एक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना (वि० पाँचवीं-छठी शताब्दी) में की है। अनेकान्त को सिद्ध करने वाला यह एक अद्भुत ग्रन्थ है। ग्रन्थकार ने सभी वादों की एक चक्र कल्पना की है जिसमें पूर्व-पूर्ववाद का उत्तर-उत्तरवाद खण्डन करता है। पूर्व-पूर्ववाद की अपेक्षा से उत्तर-उत्तरवाद प्रबल मालूम होता है। किन्तु चक्रगत होने से प्रत्येक वाद पूर्व में अवश्य पड़ता है। अतएव प्रत्येक वाद की प्रबलता या निर्बलता सापेक्ष है। कोई निर्बल ही हो या सबल ही हो, यह एकान्त नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार सभी दार्शनिक अपने गुण-दोषों का यथार्थ प्रतिबिम्ब देख लेते हैं। नयचक्र पर सिंह क्षमाश्रमण ने १८००० श्लोक प्रमाण बृहत्काय टीका लिखी। इस युग के एक प्रभावशाली आचार्य पात्रकेशरी हुए हैं जिनकी रचना 'त्रिलक्षणकदर्थन', सिद्धसेनकृत 'न्यायावतार' की तरह उस युग की प्रमाणशास्त्र से सीधा सम्बन्ध रखनेवाली कृति है। इनके अतिरिक्त अनेकान्त की व्यवस्था करने में छोटे-मोटे सभी जैनाचार्यों ने भरसक प्रयत्न किया और उस वाद को एक ऐसी स्थिर भूमिका प्रदान कर दी कि आगे के आचार्यों के लिए केवल उस वाद के ऊपर होने वाले नए-नए आक्षेपों का उत्तर देना ही शेष रह गया है। अत: इस युग का अनेकान्त स्थापनायुग अत्यन्त सार्थक है। प्रमाण व्यवस्था युग बौद्ध प्रमाणशास्त्र के पिता दिङ्नाग ने तत्कालीन न्याय, सांख्य और मीमांसा दर्शन के प्रमेयों का तो खण्डन किया ही साथ ही उनके प्रमाण लक्षणों का भी खण्डन किया तथा वसुबन्धु की प्रमाण विषयक विचारणा का संशोधन करके स्वतंत्र बौद्ध प्रमाणशास्त्र की व्यवस्था की। इसके उत्तर में प्रशस्तपाद, उद्योतकर, कुमारिल, सिद्धसेन. मल्लवादी. सिंहगणि, पज्यपाद, समन्तभद्र आदि ने अपने-अपने दर्शन
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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