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________________ जैन दार्शनिक चिन्तन का ऐतिहासिक विकास-क्रम : १२५ हरिभद्र ने जैन दर्शन के पक्ष को प्रबल बनाने के लिए 'अनेकान्तजयपताका' एवं 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' नामक अपने ग्रन्थ में बौद्ध और बौद्धेतर सभी दार्शनिकों के आक्षेपों का उत्तर दिया। उन्होंने बौद्धग्रन्थ 'न्यायप्रवेश' की टीका करके यह सूचित कर दिया कि ज्ञान के क्षेत्र में चौकाबन्दी नहीं चलेगी। आचार्य विद्यानन्द ने अपने समय तक विकसित दार्शनिक वादों को 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में स्थान दिया और उनका समन्वय करके अनेकान्तवाद की चर्चा को विकसित किया तथा प्रमाणशास्त्र सम्बन्धित विषयों की चर्चा भी उसमें की। इस सन्दर्भ में उनके आप्तपरीक्षा, पात्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यानुशासन आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त जिन आचार्यों ने अपनी कृतियों से प्रमाणव्यवस्था को समृद्ध किया उनमें अनन्तकीर्ति, शाक्टायन, अनन्तवीर्य, माणिक्यनन्दी, सिद्धर्षि, अभयदेव, प्रभाचन्द्र, वादिदेव, हेमचन्द्र, मल्लिषेण, शान्त्याचार्य, रत्नप्रभ, रामचन्द्र, सोमतिलक आदि प्रमुख हैं। इस प्रकार प्रमाण-व्यवस्था युग की स्थापना हुई । दार्शनिक समीक्षा युग : (नव्यन्याय- युग) __ भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में नव्यन्याय के युग का प्रारम्भ गंगेश उपाध्याय से होता है। गंगेश का जन्म विक्रम सं० १२५६ में हुआ। उन्होंने नवीनन्याय शैली का विकास किया तभी से समस्त दार्शनिकों ने उसके प्रकाश में अपने-अपने दर्शन का परिष्कार किया। गंगेश उपाध्याय ने नव्यन्याय के द्वारा प्रमाण-प्रमेय को अवच्छेदकावच्छिन्न की भाषा में जकड़ दिया। किन्तु यशोविजय के पूर्व जैन दार्शनिकों में से किसी का इस ओर ध्यान नहीं गया । फलतः१३वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी के अंत तक भारतीय दर्शनों की विचारधारा का जो नया विकास हुआ उससे जैन दार्शनिक साहित्य वंचित ही रहा। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में वाचक यशोविजय ने काशी की ओर प्रयाण किया और सर्वशास्त्र वैशारद्य प्राप्त करके उन्होंने जैन दर्शन में भी नवीनन्याय की शैली से अनेक ग्रन्थ लिखे और अनेकान्तवाद के ऊपर किए गए आक्षेपों का समाधान करने का प्रयत्न किया। उन्होंने 'अनेकान्तव्यवस्था' लिखकर अनेकान्तवाद की पुनः प्रतिष्ठा की और 'अष्टसहस्त्री' तथा 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' नामक प्राचीन ग्रन्थों पर नवीन शैली की टीका लिखकर उन दोनों ग्रन्थों को आधुनिक बनाकर उनका उद्धार किया। उन्होंने नयवाद के विषय में 'नयप्रदीप', 'नयरहस्य', 'नयोपदेश' आदि अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। अपने नव्यन्याय की परिष्कृत शैली में रचित 'खंडनखंडखाद्य' आदि ग्रन्थों में यशोविजय ने उस युग तक के विचारों का समन्वय किया तथा उसे नये ढंग से परिष्कृत करने का आद्य और महान प्रयत्न किया। विमलदास की
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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