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________________ ११८ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७ भगवान महावीर के ११ गणधरों ने जो साहित्य सृजन किया वह अंग प्रवृष्ट है और स्थविरों ने जिस साहित्य की रचना की है वह अनंग प्रविष्ट है। द्वादशांगी के अतिरिक्त सम्पूर्ण आगम साहित्य अनंग प्रविष्ट है। आगमों में मुख्य स्थान रखनेवाली द्वादशांगी की विशेषता है कि वह स्वतः प्रमाण है। शेष आगम परत: प्रमाण हैं अर्थात् द्वादशांगी से जो अविरुद्ध है वह प्रमाण, शेष अप्रमाण है। अंगबाह्य ग्रंथों में औपपातिक, राजप्रश्नीय आदि १२ उपांग; आवश्यक, दशवैकालिक, आदि ४ मूलसूत्र, नन्दी - अनुयोगद्वाररूप २ चूलिकायें; निशीथ, महानिशीथ, आदि ६ छेदसूत्र तथा चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, आदि १० प्रकीर्णक अन्तर्भावित हैं। इन सभी सूत्रों का सम्बन्ध दर्शन से नहीं है। कुछ का सम्बन्ध जैन आचारशास्त्र से, कुछ का भूगोल - खगोल शास्त्र से, उपदेशात्मक हैं तो कुछ कुछ का सम्बन्ध कल्पित कथाओं तथा शुभ और अशुभ विपाक-कथाओं से है। अत: जैन आगमों में तत्कालीन सभी विद्याओं का समावेश हुआ। दर्शन से सम्बन्धित आगम हैं - सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, नन्दी और अनुयोगद्वार । आगम युग में दार्शनिक विषयों का निरूपण 'राजप्रश्नीय' को छोड़ दें तो युक्तियुक्त पूर्वक प्रायः नहीं किया गया है, यह स्पष्ट है। प्रत्येक विषय का निरूपण जैसे कोई द्रष्टा देखी हुई बात बता रहा हो, इस ढंग से हुआ है। वस्तु का निरूपण उसके लक्षण द्वारा नहीं, किन्तु भेद-प्रभेद के प्रदर्शन पूर्वक किया गया है। आज्ञा प्रधान या श्रद्धा प्रधान उपदेश शैली यह आगम युग की विशेषता है । 'सूत्रकृतांग" में तत्कालीन दार्शनिक विचारों का निराकरण करके स्वमत की स्थापना की गयी है। तत्कालीन क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद का निराकरण कर सुसंस्कृत क्रियावाद की स्थापना की गयी है। 'प्रज्ञापना' में जीव के विविध भावों को लेकर विस्तार से विचार किया गया है। 'राजप्रश्नीय' में पार्श्वनाथ की परम्परा में हुए केशी श्रमण ने श्रावस्ती के राजा पएसी के प्रश्नों के उत्तर में नास्तिकवाद का निराकरणकर आत्मा और तत्सम्बन्धी अनेक बातों को उदाहरण देकर युक्तिपूर्वक समझाया है। 'भगवतीसूत्र' में अनेक प्रश्नोत्तरों में नय, प्रमाण, सप्तभंगी, अनेकान्तवाद आदि अनेक दार्शनिक विचार बिखरे पडे हैं। 'नन्दीसूत्र' जैन परम्परामान्य ज्ञान के स्वरूप और भेदों का विश्लेषण करती है। 'स्थानांग' और 'समवायांग' बौद्धों के 'अंगुत्तरनिकाय' की भांति हैं जिनमें आत्मा, पुद्गल, ज्ञान, नय, प्रमाण आदि
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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