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________________ ११६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७ जैन दर्शन इसी परम्परा का एक अंग है। चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी के बाद अनेक आचार्यों ने इस दर्शन को विकसित करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जिसके कारण विश्व और मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष की समस्याओं के समाधान हेतु सुसम्बद्ध चिन्तन-पद्धति के रूप में आज जैन दर्शन हमारे सामने उपलब्ध है। जैन दर्शन का उद्भव और विकास : ईसा पूर्व छठी शताब्दी के आस-पास का समय भारत में बौद्धिक क्रांति और तार्किक गवेषणा का काल माना जाता है। इस युग में मानवीय जीवन व्यापार को प्रेरणा देने वाली शक्तियों और उसे मान्यता प्रदान करने वाले विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। समस्त मानवीय चेतना सोते-सोते जाग पड़ी और कुछ ऐसे सुधारक उत्पन्न हुए जिनमें से कुछ ने वैदिक धारा के अन्तर्गत ही रहकर उसे शुद्ध रूप देने का प्रयास किया, और दूसरे सुधारकों ने वैदिक सिद्धान्तों को अस्वीकार कर अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा की। प्रथम कोटि के सुधारक वाल्मीकि और व्यास थे, तथा दूसरे प्रकार के सुधारक महावीर और गौतम बुद्ध थे । वेद बाह्य सुधारकों ने याज्ञिक हिंसा का निश्चित और कठोर स्वरों में विरोध किया। जहाँ जैन सन्तों ने आस्तिक विचारकों के केवल व्यावहारिक पक्ष का विरोध किया वहीं बौद्ध सन्तों ने उसके व्यावहारिक और तात्त्विक दोनों प्रकार के पक्षों का रूपान्तर किया। जैन दर्शन का विकास मात्र तत्त्वज्ञान की भूमि पर न होकर आचार की भूमि पर भी हुआ है । जीवन शोधन की व्यक्तिगत मुक्ति प्रक्रिया और समाज तथा विश्व में शान्ति स्थापना की लोकैषणा का मूल मंत्र अहिंसा ही है। - अहिंसा का निरपवाद और निरूपाधि विचार समस्त प्राणियों के जीवन को आत्मसात किये बिना हो नहीं सकता था । श्रमण धारा का सारा तत्त्वज्ञान या दर्शन विस्तार, जीवन-शोधन और चारित्र - वृद्धि के लिए हुआ है। वैदिक परम्परा में तत्त्वज्ञान को मुक्ति का साधन माना गया है। वैदिक परम्परा वैराग्य आदि से ज्ञान की पुष्टि करती है और विचार शुद्धि करके ज्ञान को ही मोक्ष मान लेती है। जबकि श्रमण परम्परा चारित्र पर बल देती है और कहती है कि उस ज्ञान का, उस विचार का कोई विशेष मूल्य नहीं है जो जीवन में न उतरे, जिसकी सुवास से जीवन सुवासित न हो । कोरा ज्ञान या विचार दिमागी कसरत से अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखता। इसकी पुष्टि जैन परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम सूत्र से हो जाती है। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।। १
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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