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________________ जैन ज्ञानमीमांसा : प्रमाणनयतत्त्वालोक के विशेष सन्दर्भ में : ६३ आगम ग्रन्थों का प्रारम्भ ज्ञानसूत्र से होता है। 'उत्तराध्ययनसत्र' में मोक्षमार्ग की प्ररूपणा में ज्ञेय से पूर्व ज्ञान का निर्देश उपलब्ध होता है। विभिन्न नियुक्तियों एवं भाष्यों में उपोद्घात के रूप में ज्ञान की महत्ता का निरूपण है। जैनाचार्य ज्ञान को विषय की चेतना के अर्थ में परिभाषित करते हैं। जैन मत के अनुसार ज्ञान अथवा चेतना जीव का गुण है। वह निसर्गत: अनन्त ज्ञानविशिष्ट है, परन्तु कर्मों के आवरण से उसका विशुद्ध चैतन्य रूप ढका रहता है, जो सम्यक्चारित्र पालन से पुनः अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है। जिसके द्वारा जाना जाता है वह ज्ञान है। आत्मा ज्ञाता है। वह ज्ञान के द्वारा ज्ञेय को जानता है। आयारो में कहा गया है - जे आया से विन्नाया, जे विनाया से आया।' अर्थात् जो आत्मा है, वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वही आत्मा है। ज्ञान और आत्मा में गण और गणी का सम्बन्ध है। गण, गणी से सर्वथा अभिन्न नहीं होता और सर्वथा भिन्न भी नहीं होता। आत्मा गुणी है और ज्ञान उसका गुण है। इस विवक्षा से वह आत्मा से कथंचित् भिन्न है। ज्ञान आत्मा ही है इसलिए वह आत्मा से अभिन्न है।" ज्ञान आत्मा का स्वरूप धर्म है। जो जानता है वह आत्मा है। आत्म स्वरूप होने के कारण ही ज्ञान स्व और पर.दोनों को जानने में समर्थ होता है। 'आवश्यकचूर्णि' में ज्ञान का अर्थ संवेदन, अधिगम, वेदना, भाव आदि बतलाया गया है।१० व्युत्पत्ति की दृष्टि से ज्ञान की व्याख्या कर्तृ, करण, भाव और अधिकरण साधन के रूप में की जा सकती है। फलत: आत्मा की वह परिणति जो ज्ञाता है, ज्ञान का साधन अथवा आधार है अथवा ज्ञप्ति है, वह ज्ञान है। इसी प्रकार 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है कि जो जानता है वह ज्ञान है, जिसके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान है अथवा जानना मात्र ज्ञान है।१२ 'तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी' की टीका में ज्ञान का अर्थ वस्तु के स्वरूप का अवधारण करना बतलाया गया है।१३ अर्थात् जिसके माध्यम से ज्ञाता को यह बोध हो सके कि उसके विषय का स्वरूप 'यह है' वह परिणति ज्ञान है। ज्ञेय के स्वरूप का निश्चय करने के लिए तदितर वस्तुओं का - पररूपों का अपनोद भी अनिवार्य है। अर्थात् जब कोई ज्ञाता यह जानता है कि अमुक वस्तु घट है, इसका अर्थ ही है कि वह जानता है कि विवक्षित वस्तु पट आदि नहीं है। स्वामी पूज्यपाद के अनुसार जीव आदि पदार्थ जिस रूप में व्यवस्थित हैं, उन्हें उसी प्रकार जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्याज्ञान की अवस्था में ज्ञाता को अनध्यवसाय, संशय और विपर्यय नहीं होता है। भट्ट अकलंक के अनुसार ज्ञेय का यथार्थ प्रकाशन ज्ञान है, अर्थात् चेतना की वह शक्ति जिससे जीव आदि का तत्त्वत: प्रकाशन हो वह ज्ञान है।२४ इस प्रकार वे सभी संवेदनाएँ जिनके उद्गम एवं स्वरूप को ज्ञाता जानता है तथा जिनमें स्वरूप के ग्रहण के साथ पररूप के परित्याग या विवेक की क्षमता है वह ज्ञान है। 'राजवार्तिक' में
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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