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________________ ६४ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७ एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान को परिभाषित किया गया है। कहा गया है कि ज्ञान-क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है, क्योंकि वह ज्ञान स्वभावी है।१५ यहां प्रश्न होना स्वाभाविक है कि यदि आत्मा ज्ञान स्वभावी है अर्थात् आत्मा और ज्ञान एक है तो फिर आत्मा अपने ज्ञान को कैसे जान सकती है? क्या उसके लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता होती है? यदि किसी अन्य ज्ञान की सत्ता स्वीकार की जाती है तो वहाँ अनवस्था दोष होता है। इस सन्दर्भ में जैनाचार्यों का कहना है कि ज्ञान स्वयं को जानता हआ ही दूसरे को भी जानता है। वह दीपक की भाँति स्व-पर प्रकाशक है। 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' में स्पष्ट वर्णन आया है कि 'स्व और पर को निश्चित रूप से जानने वाला ज्ञान ही प्रमाण है।'१६ यहाँ 'स्व' का अर्थ ज्ञान है और 'पर' का अर्थ है ज्ञान से भिन्न पदार्थ। तात्पर्य यह है कि वही ज्ञान प्रमाण माना जाता है जो अपने आपको भी जाने और दूसरे पदार्थों को भी जाने और वह भी यथार्थ तथा निश्चित रूप से। अर्थात् ज्ञान ही प्रमाण है।१७ ग्रहण करने योग्य और त्याग करने योग्य वस्तु को स्वीकार करने तथा त्याग करने में प्रमाण समर्थ होता है, अत: ज्ञान ही प्रमाण है। १८ उपादेय क्या है और हेय क्या है, इसे बतलाना ही प्रमाण की उपयोगिता है। प्रमाण की यह उपयोगिता तभी सिद्ध हो सकती है जब प्रमाण को ज्ञान रूप माना जाय। यदि प्रमाण ज्ञान रूप न होकर अज्ञान रूप होगा तो वह हेय-उपादेय का विवेक नहीं करा पाएगा। अत: ज्ञानरूप सन्निकर्ष ही प्रमाण है। प्रमेय पदार्थ जैसा है उसे उसी रूप में जानना ही ज्ञान की प्रमाणता है।९ जो वस्तु जैसी है उसे अन्य रूप में जानना अप्रमाणता है। प्रत्येक ज्ञान अपने स्वरूप को वास्तविक ही जानता है। ज्ञान के दो मौलिक रूप हैं- प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षा प्रत्यक्ष में हम इन्द्रिय उपलब्धों और मानसिक अवस्थाओं को देख सकते हैं। अप्रत्यक्ष ज्ञान में अनुमान का अंश होता है और यह क्रिया स्मृति की सहायता से सम्पन्न होती है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष का यह विश्लेषण अन्य दर्शनों में प्राप्त होता है, जैन दर्शन में नहीं। जैन दर्शन में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष की विवेचना अलग रूप में की गई है। जैन दर्शन के अनुसार जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष तथा जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष-परोक्ष का यह विश्लेषण जैन दर्शन में किया गया उत्तरवर्ती विश्लेषण है, क्योंकि आगम काल तक जैन साहित्य में ज्ञानमीमांसा की ही प्रधानता रही।२१ आगमों में ज्ञान-सम्बन्धी जो मान्यताएं मिलती हैं वे बहुत प्राचीन हैं। पंचज्ञान की चर्चा आगम साहित्य में प्राप्त होती है।२२ आगमों में प्राप्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान के पाँच प्रकार पूर्ववर्ती हैं। पञ्चज्ञान की चर्चा 'राजप्रश्नीय' में भी हुई है। यहाँ आभिनिबोधिकज्ञान (मतिज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान की चर्चा मिलती है। २३ 'राजप्रश्नीय' में कहा गया है- इन
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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