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________________ ८४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ है। शैव सिद्धान्त का शिव जीवों से प्रेम करता है और यही कारण है कि वह . उन्हें इस संसार से मुक्त होने का अवसर भी देता है। मुक्ति से पूर्व भी और पश्चात् भी शिव, जीव में अन्तर्निहित होता है। इसके विपरीत जैन दर्शन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ईश्वर हमारे भक्ति से प्रसन्न होकर न ही हमें सुख देगा, और न ही हमारी अवहेलना से अप्रसन्न होकर हमें कष्ट देगा। स्पष्ट है कि जैन धर्म में ईश्वर के लिये स्थान नहीं है। किन्तु कालान्तर में तीर्थंकरों और धर्म के प्रति हमारी आस्था बनी रहे इस कारण तीर्थंकरों के अधीन शासनाध्यक्ष यक्ष व यक्षी आदि की कल्पना की गई, जो हमारे भौतिक अभिष्टों को पूरा कर सकते हैं। फिर भी जैन दर्शन में ईश्वर की सत्ता को इन्कार किया गया है। ____ अन्य दर्शनों की भाँति शैव सिद्धान्त की भी मान्यता है कि मुक्ति की अवस्था में जीव परमतत्त्व के समान हो जाता है, किन्तु मुक्ति की अवस्था में भी वह उपास्य-उपासक का भेद स्वीकार करता है अर्थात् मोक्षावस्था में भी जीव शिव के समान नहीं होता, अपितु मलों का आवरण हट जाने पर वह शिव के समान चित्त हो जाता है। शैव सिद्धान्त की भी मान्यता है कि जिस प्रकार नमक जल में मिल जाता है उसी प्रकार शिव आत्माओं में अपने गुण भर देता है और उससे परे भी रहता है।" शैव सिद्धान्त के समान जैन दर्शन भी मोक्षावस्था में साध्य और साधक का अभेद मानते हैं। आचार्य हेमचन्द्र इसी अभेदता को बताते हुए कहते हैं कि "कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और उसको विजित करने वाला आत्मा ही मोक्ष कहलाता है। अर्थात् जब तक साधक कषायों के वशीभूत रहता है तब तक साधक रहता है और जब कषायों पर विजय प्राप्त कर लेता है तो वही साधक साध्य (मोक्ष) बन जाता है। दोनों दर्शनों में अन्तर है तो यह कि शैव सिद्धान्त का जीव कितना ही सर्वज्ञ, शक्तिमान क्यों न हो वह शिव से निम्नतर ही होगा। दूसरी ओर जैन दर्शन में आत्मा सर्वशक्तिमान होता है। साध्य व साधक में कोई अन्तर नहीं होता, क्योंकि उनके अनुसार मुक्ति तो साधक का अपना ही रूप है, कोई बाह्य पदार्थ नहीं। इस विभिन्नता के बावजूद भी दोनों दर्शन आत्मा के स्वरूप में अधिष्ठित होने की बात स्वीकार करते हैं। शैव सिद्धान्त की इस मुक्ति की व्याख्या में भक्ति का चरमोत्कर्ष देखा जा सकता है। जैन दर्शन जहां आत्मपूर्णता को मोक्ष मानता है वहां शैव सिद्धान्ती उपास्य उपासक का भेद मानते हैं। किन्तु यह विचित्र-सा लगता है कि उपास्य १ दखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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