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________________ जैन दर्शन व शैव सिद्धान्त दर्शन में प्रतिपादित मोक्ष : ८३ • का यथाशक्ति निरोध करना ही संवर है। क्योंकि क्रियाएं ही बन्धन के मल कारण हैं। इस प्रकार संवर का अर्थ अनैतिक और पापकारी प्रवृत्तियों से अपने आपको बचाना है। मोक्ष की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक नये कर्म-पुद्गलों को आत्मा की तरफ प्रवाहित होने से न रोका जाय। कर्म स्वभावत: अपना फल देगें ही और इस स्थिति में मुनष्य को अनेक योनियों में भ्रमण करते रहना पड़ेगा। शैव सिद्धान्त की भी ऐसी मान्यता है कि जीव को स्वयं के कर्मों द्वारा ही इस बन्धन से मुक्ति प्राप्त होगी। इसके लिये आवश्यक है कि नये कर्मों का उत्पादन न किया जाये अर्थात् वासनाओं पर अधिकार आवश्यक है। इस समस्या से बचने के लिये जहां जैन दर्शन मिथ्यात्व आदि आस्रवों को सर्वथा अवरूद्ध कर देने व नवीन कर्मों के आगमन का निरोध करता है वहीं शैव सिद्धान्ती कर्मों के उदात्तीकरण पर बल देते हैं जिसमें जीवात्मा बुरे कर्मों को बुरा समझ कर छोड़ देता है, अच्छे कर्मों को वह ईश्वर(शिव) को समर्पित करके करता है और उनके फल भोग से बच जाता है। दूसरे शब्दों में जीवात्मा नवीन कर्म फलों का उत्पादन नहीं करता। इसके अतिरिक्त दोनों ही दर्शन अच्छे और बुरे अनुभवों से वासनाओं की तीव्रता को कम करने के लिये कर्मों को मोक्ष प्राप्ति में समान रूप से आवश्यक मानते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिये जिस साधन प्रक्रिया को जैन दर्शन संवर और निर्जरा कहता है शैव दर्शन में वही कर्मों का उदात्तीकरण व मलपरिपाक कहलाता है। जिस प्रकार संवर के पश्चात् जो कर्म आत्मा के साथ अब भी लगे हैं उनके समूल नाश के लिये निर्जरा को जैन दर्शन आवश्यक मानता है उसी प्रकार शैव सिद्धान्ती भी कर्मों के समूल नाश के लिये “मलपरिपाक" की प्रक्रिया को आवश्यक मानते हैं। इन दोनों प्रक्रियाओं के अभाव के कारण कर्मों से मुक्ति संभव नहीं है- यह विचार दोनों दर्शनों में समान है। जैन दर्शन स्वभावत: अनीश्वरवादी दर्शन है इस कारण वह ईश्वर प्रत्यय का सर्वथा खण्डन करता है। ऐसा मानने के पीछे उसकी यह धारणा है कि प्रत्यक्ष द्वारा ईश्वर की प्राप्ति असंभव है, तथापि वे कालान्तर में ईश्वर के स्थान पर तीर्थकरों को मानने लगे। ईश्वर के बारे में शैव सिद्धान्त का अपना अलग ही दृष्टिकोण है जो उसके पूर्णतया भक्तिप्रधान दर्शन होने की पष्टि करता है। देखा जाय तो तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से आगम की सबसे बड़ी विशेषता परमतत्त्व की अवधारणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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