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________________ ८२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ में मुक्तात्मा पूर्ण अवस्था में भी सर्वोच्च पद (शिव) का सेवक ही रहता है, क्योंकि सृष्टि आदि कृत्य जीव नहीं कर सकता। यहां दोनों दर्शनों में वर्णित मुक्ति में मतभेद एक दर्शन के ईश्वरवादी और दूसरे के अनीश्वरवादी होने की वजह से है। यहां उनकी विभेदता का अन्य कोई स्पष्ट कारण नहीं दिखायी देता। क्योंकि राग, द्वेष आदि वृत्तियों का तो दोनों ही दर्शन मुक्तात्मा में निरोध मानते हैं। किन्तु सर्वोच्चता की स्थिति में जीव, शिव के अभिन्न रूप में स्थित हो जाता है- इसका जैन दर्शन निरोध करता है। जैन दर्शन निवृत्तिमार्गी है, अत: वह जागतिक पदार्थों की नश्वरता को लेकर चलता है, क्योंकि उसके अनुसार मानव के जो भी ऐन्द्रिय अनुभव के विषय हैं वे सभी स्वभावत: परिवर्तनशील और विनाशशील हैं। किन्तु शैव सिद्धान्त का जगत् की नश्वरता सम्बन्धी दृष्टिकोण अपना एक अलग महत्त्व रखता है। शैव सिद्धान्त के अनुसार समस्त जगत् अगर शिवमय है तो नश्वर कैसे हो सकता है। यहां जगत् के प्रति धार्मिक भाव दिखायी देता है। शैव सिद्धान्ती जगत् को बन्धन का कारण न मानकर उसे भी मोक्ष के लिये आवश्यक मानते हैं। उनका जगत् सम्बन्धी विचार और भी स्पष्ट हो जाता है जब शैव सिद्धान्ती भुक्ति और मुक्ति अर्थात् संसार और मोक्ष में कोई विरोध नहीं पाते हैं। यह जैन के उन मान्यताओं के ठीक विपरीत है जहां निवृत्ति को संन्यास का दूसरा रूप माना गया है। जैनागम के दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि “गृहस्थ जीवन पापकारी है और संन्यास निष्पाप है। "५ जैन धर्म के अनुसार गृहस्थ जीवन साध्य (मोक्ष) की उपलब्धि का एक ऐसा मार्ग है जो सरल होते हुए भी भयपूर्ण है। गृहस्थ जीवन में साधना के मूल तत्त्व अर्थात् मनःस्थिरता को प्राप्त करना दुष्कर है। गृहस्थ जीवन वनखण्ड की तरह बाधाओं से परिपूर्ण है, किन्तु साथ ही साथ जैन दर्शन में यह भी माना गया है कि जहाँ कहीं भी समभाव है वहाँ सबका समान महत्त्व है। चाहे वह गृहस्थ हो या श्रमण। स्पष्ट है कि शैव दर्शन की साधना-पद्धति संन्यासमार्गी न होकर पूर्णतया गृहस्थमार्गी है और संसार के प्रति अपना सकारात्मक दृष्टिकोण रखता है, जबकि जैन दर्शन गृहस्थ की अपेक्षा संन्यास को ज्यादा श्रेयस्कर मानता है। जैन दर्शन में आस्रव-निरोध को संवर कहा गया है अर्थात् नवीन कर्म वर्गणाओं के पुद्गलों को रोकना। यह संवर मोक्ष-प्राप्ति का प्रथम सोपान - व मूल कारण माना गया है। सामान्यत: शारीरिक, मानसिक, वाचिक क्रियाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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