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________________ जैन दर्शन व शैव सिद्धान्त दर्शन में प्रतिपादित मोक्ष : ८१ • अव्याबाध रूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे ही मोक्ष कहते हैं। शैव सिद्धान्त के अनुसार आत्मा द्वारा शुद्धावस्था की प्राप्ति ही मोक्ष है । मलों के प्रभाव से आत्मा स्वयं मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। मोक्ष प्राप्ति के लिये आत्मा शिव पर आश्रित है। शिव के अनुग्रह द्वारा ही आत्माएं मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं। मोक्ष पाने के लिये जीव शिव पर ही निर्भर करता है । किन्तु शिव की कृपा प्राप्त करने की आवश्यक शर्त मलों से पूर्ण निवृत्ति (मलपरिपाक) है। इसके पश्चात् शिव गुरु रूप में उपस्थित हो जीव पर शक्तिपात करते हैं और जीव साधना के अनन्तर शिवोऽहं का अनुभव करता है और शिव में लीन हो जाता है। शैव सिद्धान्त में यही मोक्ष का स्वरूप है। सर्वप्रथम देखें तो दोनों ही दर्शनों में कर्ममलों से निवृत्त होने पर ही मोक्ष को माना गया है, किन्तु जैन दार्शनिक अनीश्वरवादी होने के कारण जहाँ अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि रूप और अव्याबाधसुख रूप को मोक्ष कहते हैं वहीं शैव सिद्धान्ती जैन दार्शनिकों की मुक्ति की अवधारणा से तो सहमत होते किन्तु वे मुक्ति को शिवानुभूति की अवस्था मानते हैं, और कहते हैं कि मुक्ति आत्मा के प्रयास का परिणाम नहीं अपितु शिव के अनुग्रह के कारण है। मोक्ष के स्वरूप के प्रतिपादन में शैव सिद्धान्त भक्तिमीमांसीय व्याख्या करता है। जैनागमों में मोक्ष तत्त्व पर तीन दृष्टियों से विचार हुआ है- १. भावात्मक २. अभावात्मक ३. अनिर्वचनीय । भावात्मक दृष्टि से मोक्ष बाधक तत्त्वों की अनुपस्थिति और आत्म शक्तियों का पूर्ण प्रकटन है। मोक्षावस्था में मनुष्य में निहित ज्ञान, भाव व संकल्प, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख व अनन्त शक्ति में परिवर्तित हो जाता है । निषेधात्मक रूप में मुक्त जीव में समस्त कर्मजन्य उपाधियों का भी अभाव होता है, अतः मुक्तात्मा निराकाय होता है और अनिर्वचनीय रूप में मुक्तात्मा को व्यक्त करने के लिये कोई शब्द नहीं है, कोई पद नहीं है। अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति शैव सिद्धान्ती भी मुक्तात्मा को शुद्ध, निर्मल व चित्त मानते हैं। किन्तु अपनी इस अवस्था में भी जीव (मुक्तात्मा) शिव के समान सत्, चित्त, और आनन्दरूप नहीं हो सकता है अर्थात् जीव शिव • के समान स्थिति और संहार आदि कृत्य नहीं कर सकता। जहां जैन दर्शन में मुक्तात्मा आत्मपूर्णत्व को प्राप्त हो सर्वोच्च पद पर पहुंचता है वहां शैव सिद्धान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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