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________________ जैन दर्शन व शैव सिद्धान्त दर्शन में प्रतिपादित मोक्ष : ८५ • ही स्वयं उपासक हो जाय। इस विवाद से बचने के लिये शैव मुक्ति की इस व्याख्या में सायुज्य मुक्ति के सम्बन्ध की दृष्टि से अभेद मानते हुए भी अद्वैत की दृष्टि से द्वैत मानते हैं। भारतीय दर्शन में मोक्ष के सम्बन्ध में संदेहमुक्ति और विदेह मुक्ति की अवधारणा मिलती है। जैन दर्शन इसी मुक्ति की व्याख्या द्रव्य व भावमोक्ष रूप में करता है। भावमोक्ष राग, द्वेष आदि से पूर्णतया निवृत्त हो जाने पर तथा द्रव्यमोक्ष मरणोपरान्त प्राप्त होता है। शैव सिद्धान्त के अनुसार अन्य मुक्ति सम्बन्धित व्याख्याओं को हम अपर मुक्ति अथवा निम्नतर मुक्ति कह सकते हैं। क्योंकि वहाँ मुक्ति की व्याख्या पाश ज्ञान और पशु ज्ञान तक ही सीमित है। अत: शैव सिद्धान्ती अपनी मुक्ति की विवेचना करते हुए सायुज्य मुक्ति को प्रतिपादित करते हैं जिसमें शारीरिक सुख को क्षणिक मानते हुए वास्तविक आनन्द शिवानुभूति को मानते हैं और कहते हैं कि मुक्ति सुख-दुःख से परे की स्थिति है। मुक्त जीव सुख और दुःख दोनों को समान भाव से स्वीकार करता है। सांसारिक सुख न उसे प्रसन्न करते हैं न दुःख उसे विचलित करते हैं। जबकि जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष की अवस्था दुःखान्त के अतिरिक्त परम शान्ति की अवस्था है। किन्तु अनीश्वरवादी होने के कारण जैन यह मानते हैं कि मोक्ष जीव के स्वयं के प्रयास का परिणाम है। जैन दर्शन में मान्य दो प्रकार के सुखों में इन्द्रिजन्य सुख का तो मोक्षावस्था में विनाश हो जाता है किन्तु आत्मीय सुख का अभाव मानना ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा सुख रूप है और अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। यदि आत्मा का स्वभाव ही नष्ट हो जायेगा तो क्या बचेगा। इस प्रकार वे सिद्ध करते हैं कि मोक्ष में स्वाभाविक सुख का उच्छेद नहीं होता और साथ ही साथ अनादि अविद्या के विलय से आनन्दरूपता की अभिव्यक्ति भी होती है। ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मप्रवाह रूप अनादि अविद्या के नष्ट होने पर अनन्त सुख, अनन्त ज्ञानादि रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। अगर मुक्त आत्मा को हम संवेद्य रूप (जानने योग्य के रूप में) मानें तो अनन्त ज्ञान की स्वत: सिद्धि हो जाती है अथवा उनका (अनन्त सुख) संवेदन होता है और नहीं मानेंगे तो उसे आनन्द स्वरूप भी कहना असंगत होगा। यहां दोनों दर्शनों में वैचारिक विषमता दिखाई देती है। कर्म, बन्धन का और अकर्म, मुक्ति का हेतु है यह तो सभी दर्शन स्वीकार करते हैं। किन्तु तुलनात्मक दृष्टिकोण से यहां यह प्रश्न विचारणीय है कि सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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