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________________ . अनेकान्तवाद एवं उसकी प्रासंगिकता : ६१ वह है, वह सही है । परन्तु उन्हें दूसरे धर्मों के प्रति एक समन्वयपूर्ण विचार रखना होगा, अर्थात् दूसरे के मतों या धर्मों में भी सत्यता के अंश को स्वीकार करना होगा। यह जैन दर्शन के अनेकान्तवादी विचार द्वारा ही सम्भव है। प्रत्येक धर्म को यह स्वीकार करना होगा कि उस 'सत्' को प्राप्त करने के अलग-अलग मार्ग हैं। सभी में आंशिक सत्यता है। ईश्वर या उस 'सत्' के सम्बन्ध में विभिन्न मतभेदों का समाधान एक विवेक पर आधारित ईश्वर द्वारा हो सकता है। एक व्यक्ति, जो ईश्वर के साथ तदाकार होता है या मोक्ष को प्राप्त करता है, साधारण मानव के स्तर से ऊपर उठ जाता है। वह आनन्दमय जगत् को प्राप्त करता है। इस तरह का विचार ईसाई धर्म, जराश्रुस्त धर्म एवं अन्य भारतीय धर्मों में भी पाया जाता है । हिन्दू धर्म का विचार ठीक ही है कि कर्म के कारणदुःख उत्पन्न होते हैं, जबकि मानव स्वभावतः आनन्दमय प्रकृति का है। मानव स्वयं अपनी शुद्ध आत्मा के बल पर मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। ईश्वर मानवीय आत्मा के रूप में एक दृष्टि से मुक्तिदाता है और दूसरी दृष्टि से नहीं भी है। ईश्वर के सम्बन्ध में या अन्य दूसरे विचारों के सम्बन्ध में इसी प्रकार के समन्वयवादी विचार द्वारा वर्तमान मतभेदों को दूर किया जा सकता है तथा विश्वशान्ति स्थापित की जा सकती है । " आज धर्म का मूल विषय है- विश्वमानव के साथ साम्य का अनुभव करना, जिसे धर्म के बदले अध्यात्म कहना अधिक संगत होगा। अतः धर्म का मूल विषय ईश्वर नहीं; बल्कि आत्मिक साम्य का अनुभव करना है, जिसके लिए मानव मूल्यों एवं चरित्र का विकास आवश्यक है। जैन दर्शन मानव मूल्यों एवं चरित्र के विकास पर बल देकर धर्म को अत्याधुनिक बना देता है । इसी प्रकार नैतिकता के क्षेत्र में भी अनेकान्तवाद की अत्यन्त आवश्यकता प्रतीत होती है। वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिए अनेकान्त दर्शन की महती आवश्यकता है। किसी वस्तु या बात को ठीक-ठीक न समझकर उस पर अपने हठपूर्ण विचार या एकान्त अभिनिवेश लादने से बड़े-बड़े अनर्थ हो जाने की सम्भावना रहती है। एकान्त दृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा ही है और अनेकान्त दृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा भी है । यथार्थ में इस सारे झगड़े या विवाद की जड़ में 'ही' है। 'भी' समन्वय का प्रतीक है जो सत्य का प्रतिपादन और विवाद को शान्त करता है। इसके विपरीत 'ही' सत्य का संहार करता है तथा झगड़ों को शान्त करना तो दूर रहा, उल्टे झगड़ों को उत्पन्न करता है। एकान्तवाद मिथ्या अभिनिवेश के कारण वस्तु के एक अंश को ही पूर्ण वस्तु मान लेता है और कहता है कि वस्तु इतनी ही है । यही नाना प्रकार के झगड़ों का मूल कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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