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________________ ६२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ है। जैनों का अनेकान्तवाद इस का परिहार करके उनमें समन्वय स्थापित करता है। . ___जैन दर्शन नैतिकता पर पर्याप्त बल देता है। वह शारीरिक अहिंसा एवं बौद्धिक अहिंसा दोनों पर जोर देता है। भारत में जितने भी सम्प्रदाय हुए हैं उनमें अहिंसा को उतना महत्त्व किसी ने नहीं दिया है, जितना जैन-दर्शन ने दिया है। स्वयं हिंसा करना, दूसरों से हिंसा करवाना या अन्य किसी तरह से हिंसा में योग देना, जैन-दर्शन की मान्यताओं के विपरीत है। जैनों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को सोचना चाहिए कि जैसे उनका जीवन प्यारा है वैसे ही दूसरों का जीवन भी प्यारा है। दूसरे शब्दों में, "जियो और जीने दो' का सिद्धान्त होना चाहिए। अपने जीवन के प्रति तो एक पशु भी सचेत रहता है। अतः मनुष्य को, जो विवेकपूर्ण है, अपने से इतर व्यक्ति के जीवन के प्रति भी सचेत रहना चाहिए। जैन दर्शन सिर्फ शारीरिक अहिंसा को ही आवश्यक नहीं मानता, बल्कि बौद्धिक अहिंसा पर भी विशेष रूप से बल देता है। यही बौद्धिक अहिंसा जैन दर्शन का ‘अनेकान्तवाद' या 'स्याद्वाद' है। अपने जीवन तथा विचारों की सत्यता के साथ-साथ दूसरे के विचारों की सत्यता को भी स्वीकार करना होगा अर्थात् आंशिक मतों की संकीर्णता को त्यागकर एक समन्वयवादी विचार लाना होगा. और यह जैन दर्शन के अनेकान्तवादी दृष्टि से ही सम्भव है। अनेकान्तवाद की सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में भी समन्वय स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान में मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, तनावपूर्ण एवं अशान्तिपूर्ण बना हुआ है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से, एक समाज दूसरे समाज से तथा एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से विरोध एवं वैमनस्य का भाव रखता है। इस विरोध एवं वैमनस्य का मुख्य कारण है- एक समन्वयवादी विचार का अभाव। सभी अपने-अपने विचारों के सत्य एवं सर्वमान्य होने का दावा करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप दूसरे के विचारों से विरोध होता है तथा सामाजिक एवं राजनैतिक अशान्ति उत्पन्न होती है। जैन दर्शन का अनेकान्तवाद सिद्धान्त इस समस्या का समाधान कर सकता है। जैसा कि हम जानते हैं कि जैन-दार्शनिक अनन्त-आत्मवादी हैं। वह प्रत्येक आत्मा को मूलरूप से समान स्वभाव वाला एवं समान धर्मवाला मानता है। जाति, समाज या राष्ट्र में भिन्नता होने का अर्थ यह नहीं कि उसके आत्मा के स्वरूप में भी अन्तर है। किसी खास जाति या समाज में जन्म लेने का अर्थ कदापि यह नहीं है कि उसमें अधिकार भेद या अन्य किसी प्रकार का भेद आ जाता है। जाति-भेद तो व्यक्ति के कर्मानुसार होता है, न कि जन्मानुसार। भगवद्गीता में कहा गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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