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________________ ६० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ हैं जो वैमनस्य तथा कटुता को बढ़ाती हैं। इन विषम परिस्थितियों से निजात दिलाने का सही मार्ग अनेकान्तवाद है। यह सभी प्रकार के दुराग्रहों का उचित समाधान प्रस्तुत करते हुए कहता है कि देश - - काल तथा अन्य परिस्थितियों के कारण सत् के विविध रूप सम्भव हैं। अतः जैन दर्शन ने 'अपनी अनेकान्त दृष्टि से विचारने की दिशा में उदारता, व्यापकता और सहिष्णुता का ऐसे पल्लवन किया है, जिससे व्यक्ति दूसरे के दृष्टिकोण को भी वास्तविक और तथ्यपूर्ण मान सकता है। जब तक हम अपने ही विचार और दृष्टिकोण को वास्तविक और सत्य मानते हैं तब तक दूसरे के प्रति आदर और प्रामाणिकता का भाव ही नहीं हो पाता । अतः अनेकान्त दृष्टि दूसरे के दृष्टिकोण के प्रति सहिष्णुता, वास्तविकता और समादर का भाव उत्पन्न करती है। धर्म के क्षेत्र में जितने भी मतभेद या विवाद देखे जाते हैं उन सबके मूल में समन्वयवादी दृष्टिकोण का अभाव ही है। इन्हीं मतभेदों के कारण ही विश्व में कई युद्ध हुए हैं। आज भी इसी धार्मिक मतभेद ने अन्य कई दूसरे मतभेदों को भी उत्पन्न किया है । ३ धर्म का मुख्य बिन्दु ईश्वर या अलौकिक सत्ता में विश्वास माना जाता है। व्यक्ति अपने को इसी सर्वशक्तिशाली ईश्वर या अलौकिक सत्ता के प्रति आत्मसमर्पण करता है। परन्तु विभिन्न धर्मों में इस ईश्वर या अलौकिक सत्ता के सम्बन्ध में हमें कई मत देखने को मिलते हैं। जैसे कुछ लोगों के अनुसार ईश्वर एक है, तो कुछ लोग अनेक मानते हैं, कुछ लोग ईश्वर को इस विश्व का कर्ता मानते हैं, तो कुछ दूसरे लोग इसका विरोध करते हैं। कुछ ईश्वर को सर्वशक्तिशाली मानते हैं तो कुछ इस विश्व में वर्तमान बुराइयों को देखकर ईश्वर के सर्वशक्तिमान एवं दयालु होने खण्डन करते हैं। इसी प्रकार विश्व के विभिन्न धर्म अपनी-अपनी उच्चता एवं सच्चाई की घोषणा करते हैं। परन्तु जहाँ तक लक्ष्यों का प्रश्न है, सभी धर्मों का उद्देश्य एक ही है, भले ही उस उद्देश्य या लक्ष्य तक पहुँचने के उनके रास्ते भिन्न-भिन्न हों। अतः धार्मिक भिन्नता का कारण यह है कि एक धर्म अपने द्वारा उस चरम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जो मार्ग अपनाये हुए है उसी को सच्चा एवं उपयुक्त मानता है और अन्य धर्मों के द्वारा अपनाये गये मतों का खण्डन करता है। अतः धार्मिक मतभेद का एकमात्र कारण है— विचारों में समन्वयशीलता का अभाव। जहाँ तक उनके अपने धर्म के प्रति निष्ठा एवं विश्वास का प्रश्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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