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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : १५ जाइणिमयहरियाए रइता एते उ धम्मपुत्तेण । हरिभदायरिएणं भवविरहं इच्छमाणेणं ।। १०३९।।
उपदेशपद वृत्ति के रचयिता मुनिचन्द्रसूरि ने भी मंगलाचरण पूर्वक 'उपदेश पदों' का दो प्रकार से अर्थ करते हुए कहा है कि सकल पुरुषार्थों में प्रधान मोक्ष ही है अत : मोक्ष पुरुषार्थ विषयक उपदेशों के पद अर्थात् मनुष्य जन्म दुर्लभत्व आदि स्थानभूत शिक्षाविशेष पदों का इसमें प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय अर्थ के अनुसार 'उपदेश' और 'पद' दोनों में कर्मधारय समास करने पर उपदेशों को ही पद माना गया है। तदनुसार मनुष्य-जन्म की दुर्लभता आदि अनेक कल्याणजनक विषयों की इस ग्रन्थ में चर्चा की गई है जो उपदेशात्मक वचन रूप है।११
हरिभद्रसूरि ने मंगलाचरण आदि के बाद सभी उपदेश पदों में प्रधान उपदेशपद का उल्लेख करते हुए कहा है--
लद्रूण माणुसत्तं कहंचि अइदुल्लहं भवसमुद्दे ।
सम्मं निउंजियव्वं कुसलेहि सयावि धम्मम्मि ।।३।। अर्थात् इस संसार समुद्र में जिस किसी प्रकार से अति दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर आत्महितैषी जनों को सद् सम्यक् धर्म में कुशलतापूर्वक मन-वचन और शरीर को लगाकर उसका सदुपयोग करना चाहिए।
मनुष्य जन्म की दुर्लभता के सम्बन्ध में निम्नलिखित दस दृष्टान्त दिये हैं
१. चोल्लक, २. पाशक, ३. धान्य, ४. द्यूत, ५. रत्न, ६. स्वप्न, ७. चक्र, ८. चर्म, ९. युग (युप) और १०. परमाणु।१२
इन दस दृष्टान्तों द्वारा मनुष्य जन्म की दुर्लभता को अलग-अलग कथानकों द्वारा प्रस्तुत किया है जिसका विवेचन गाथा सं० ४ से १९ तक की गाथाओं में किया है तथा टीकाकार मुनिचन्द्र ने प्राकृत कथाओं के रूप में इन दृष्टान्तों को पद्य रूप में विस्तार दिया है। १. इन दस दृष्टान्तों में “चोल्लक' नामक प्रथम दृष्टान्त को टीकाकार ने
५०५ गाथाओं में प्रस्तुत करते हुए कहा है- जिस प्रकार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के यहां एक बार भोजन करके पुन: भोजन करना दुर्लभ हुआ, उसी प्रकार एक बार मनुष्य जन्म पाकर उसे पुन: पाना बड़ा ही दुर्लभ है।१३ यहां “चोल्लक" शब्द देशी है जिसका अर्थ है- 'भोजन'।
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