SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ २. पाशक दृष्टान्त४ में कहा है कि- नन्दवंश का उन्मूलन कर चन्द्रगुप्त । को पाटलीपुत्र का राज्य किस प्रकार प्राप्त हो, यह चाणक्य सोचने लगा। उसने अर्थसंग्रह के लिए एक यन्त्रपाश बनाया और किसी देव की कृपा से उसके पाशे प्राप्त किये। उसने पाशे को नगर के तिमुहानी और चौमुहानी आदि प्रमुख रास्तों पर रखवा दिया। चाणक्य ने उस द्यूतपाश के पास एक दीनार भरी थाली भी रखवा दी और यह कहा गया कि जो कोई जुए में जीत जायेगा, उसे दीनार भरी थाली दी जायेगी और जो हार जायेगा वह एक दीनार देगा। इस देव निर्मित पाशे के द्वारा किसी का भी जीतना संभव नहीं था, सभी हारते जाते और एक-एक दीनार देते जाते। इस प्रकार चाणक्य ने बहुत-सा धन अर्जित कर लिया। ३. धान्य का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुये कहा है कि यदि समस्त भरतक्षेत्र के धान्यों को मिलाकर उनमें एक प्रस्थ सरसों मिला दी जाए और किसी कमजोर एवं रोगी वृद्धा स्त्री से उस समस्त धान्य में से एक प्रस्थ सरसों अलग करने को कहा जाये तो जैसे- समस्त धान्य में से थोड़ी सी सरसों को पृथक् करना अत्यन्त दुर्लभ है उसी प्रकार अनेक योनियों में भटक रहे जीव को मनुष्यत्व की प्राप्ति दुर्लभ है।१५ ४. रत्न का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए कहा है कि- जैसे- समुद्र में किसी जहाज के नष्ट हो जाने पर खोये हुए रत्न की प्राप्ति दुर्लभ है वैसे ही मनुष्य जन्म की प्राप्ति दुर्लभ है।१६।। इसके बाद सूत्रदान के अन्तर्गत ९७ गाथाओं में नन्दसुन्दरी की कथा प्रस्तुत की है और विनय सूत्रदान में गुरु के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुये कहा है कि- गुरु को सूत्र का दान योग्यपात्रों को विधिपूर्वक ही करना चाहिए। क्योंकि सिद्धाचार्यों द्वारा सूत्रानुसार सूत्रदान करना निश्चय ही योग्य कार्य है। आसन्न भव्य जीवों की पहचान भी सूत्रों के अनुसार होती है। अत: द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार उचित प्रवृत्ति जिनेन्द्रदेव के शासन में सर्वत्र ही गौरव (बहुमान) प्राप्त कराती है तथा इसके विपरीत आचरण से स्व-पर का विनाश और आज्ञाकोप आदि दोषों का सेवन होता है। अत: अति निपुणबुद्धि से सम्यक् प्रवृत्ति करनी चाहिए।१७ बुद्धि के भेद आचार्य हरिभद्र ने उपदेशपद में बुद्धि के चार भेद बतलाये हैं।८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy