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________________ १४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ छोटे-बड़े कुल मिलाकर इन्होंने ३१ ग्रन्थ लिखा।६ मौलिक ग्रन्थों में प्रमुख - हैं-- अंगुल-सप्तति, वनस्पति सप्तति, आवश्यक सप्तति, गाथाकोश, उपदेशामृत-कुलक, हितोपदेश-कुलक, सम्यक्त्वोत्पादविधि, तीर्थमालास्तव आदि। टीका ग्रन्थों में प्रमुख हैं- ललितविस्तरापंजिका, अनेकान्तजयपताका टीप्यनकम्, धर्म-बिन्दुविवृत्ति, योगबिन्दुविवृत्ति, कर्मप्रकृति विशेषवृत्ति, सार्धशतकचूर्णि एवं उपदेशपद-सुखसम्बोधिनी वृत्ति। उपदेशपद पर इस वृत्ति को लिखने में लेखक के शिष्य रामचंद्र गणि ने भी सहायता की। २. मुनिचन्द्रसूरि की उपर्युक्त टीका के प्रारम्भिक भाग से ज्ञात होता है कि उपदेशपद पर सर्वप्रथम पूर्वाचार्य द्वारा लिखित कोई गहन टीका थी, किन्तु काल प्रभाव से अल्पबुद्धि वाले स्पष्ट समझने में समर्थ नहीं थे अत: सुखसम्बोधिनी नामक इस सरल वृत्ति को बनाने का प्रयत्न किया गया। ३. वर्धमानसूरि ने वि० सं० १०५५ में उपदेश पद पर एक टीका लिखी है। इसकी प्रशस्ति पार्श्विलगणि ने रची है। इस समग्र टीका का प्रथमादर्श आर्यदेव ने तैयार किया था। 'वन्दे देवनरेन्द्र' - से प्रारम्भ होने वाली इस टीका का परिमाण ६४१३ श्लोक है। ४. 'उपदेशपद' पर एक अज्ञातकर्तृक टीका भी है। 'उपदेशपद' का वैशिष्ट्य हरिभद्रसूरि ने 'उपदेशपद' ग्रन्थ का प्रारम्भ मंगलाचरण पूर्वक करते हुए भगवान् महावीर को नमन किया है तथा उनके उपदेश के अनुसार मन्दमति लोगों के प्रबोधन हेतु कुछ उपदेश पदों को कहने की प्रतिज्ञा की है नमिऊण महाभागं तिलोगनाहं जिणं महावीरं । लोयालोय-मियंकं सिद्धं सिद्धोवदेसत्यं ।।१।। वोच्छं उवएसपए कहइ अहं तदुवदेसओ सुहुमे । भावत्थसारजुत्ते मंदमइविबोहणट्ठाए ।।२।। इसी तरह ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थ का स्वकर्तृत्व सूचित किया है लेसुवएसेणेते उवएसपया इहं समक्खाया । समयादुद्धरिऊणं मंदमतिविबोहणट्ठाए ।।१०३८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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