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________________ स्मृति प्रमाण (प्रमाणमीमांसा के संदर्भ में एक समीक्षात्मक अध्ययन) : १५३ अतः वे इच्छा, द्वेष आदि का प्रामाण्य अंगीकार नहीं करते हैं। स्मृति को जैन दार्शनिकों ने उसी प्रकार प्रमाण माना है, जिस प्रकार वे प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं। प्रमाण का सामान्य लक्षण दोनों में समान रूप से घटित होता है। स्मृति की उपादेयता न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि दर्शन भी स्वीकार करते हैं, क्योंकि इसके बिना व्याप्तिज्ञान एवं अनुमान नहीं हो सकता, फिर भी वे स्वतंत्र रूप से ज्ञान का प्रतिपादक नहीं होने के कारण अथवा प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों द्वारा गृहीत अर्थ का ग्राही होने के कारण प्रमाण नहीं मानते हैं। जयन्त भट्ट ने उसे अनर्थजन्यता के कारण प्रमाण नहीं माना है। स्मृति ज्ञान को प्रमाण मानने का यह अर्थ नहीं है कि जैनमत में सभी स्मृतियां प्रमाण हैं। जैन दार्शनिक उन्हीं स्मृतियों को प्रमाण मानते हैं, जो अविसंवादक हों, व्यवहार में उपयोगी हों, स्व एवं अर्थ की निश्चायक हों, तथा जिनका फल प्रत्यभिज्ञान हो। अकलङ्क ने यद्यपि स्मृति का प्रामाण्य, स्मृति की प्रतिपत्ति से ही माना है, किन्तु स्मृति को सबको अनुभूति होने के पश्चात् भी स्मृति के यथाभूत अर्थ का ज्ञान कराने में अनेक बार विसंवादकता देखी जाती है। उस विसंवादकता का निराकरण स्मृति द्वारा सम्भव नहीं है। स्मृति तो संस्कार के अनुरूप होता है। पहले प्रत्यक्ष प्रमाण से जिस अर्थ का ज्ञान हुआ है, संस्कार यदि सुदृढ़ या सम्यक् नहीं है, अथवा दीर्घकालिक व्यवधान के कारण संस्कार धूमिल हो गया है तो स्मृति-ज्ञान संवादक या सम्यक नहीं हो सकता। स्मृति अपने आप में अपनी संवादकता का निर्णय करने में समर्थ नहीं हो सकती। स्मृति की संवादकता का ज्ञान प्रत्यक्ष या प्रत्यभिज्ञान द्वारा होना सम्भव है। स्मृति को वैशेषिक दर्शन में प्रत्यक्षादि ज्ञानों के परतन्त्र होने से पृथक प्रमाण नहीं माना गया, किन्तु परतन्त्रता तो अनुमान में भी रहती है। अनुमान भी पूर्व प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात लिङ्ग-लिङ्गी ज्ञान पर आश्रित होता है। जैन दार्शनिक कहते हैं कि लिङ्ग एवं लिङ्गी की स्मृति के बिना अनुमान प्रमाण प्रवृत्त नहीं हो सकता। इसलिए स्मृति को प्रमाण स्वीकार किये बिना अनुमान को प्रमाण नहीं माना जा सकता। ऐसा कोई दार्शनिक नहीं हो सकता जो स्मृति का प्रामाण्य स्वीकार किये बिना लिङ्ग द्वारा लिङ्गी का ज्ञान कर सके। यह आवश्यक है कि स्मृति के समय प्रमाता के समक्ष अर्थ विद्यमान नहीं रहता एवं स्मृति प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात अर्थ में वैशिष्ट्य भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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