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________________ १५२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई - दिसम्बर २००६ उत्पन्न स्मृति ज्ञान भी विषय का अवभासक होता है । प्रमाण को अर्थजन्य मानने पर मरुमरीचिका आदि से जलज्ञान भी अर्थजन्य होने से प्रमाण माना जाने लगेगा। इसलिए स्मृति अर्थजन्य होने पर भी प्रमाण है । योगिज्ञान भी अतीत एवं अनागत अर्थ को विषय करता है, किन्तु वह अर्थ से उत्पन्न नहीं होता, फिर भी उसे प्रमाण माना जाता है | 20 1 स्मृति ज्ञान का प्रामाण्य तो उसकी अविसंवादिता से है तथा अपने विषय की प्रकाशता से है । 21 हेमचन्द्र का मानना है कि यदि स्मृति को प्रमाण नहीं माना जाय तो अनुमान को भी तिलाञ्जलि देनी होगी अर्थात् उसे भी अप्रामाण्य मानना होगा। सभी वादी यह स्वीकार करते हैं कि लिङ्ग एवं लिङ्गी के सम्बन्ध के स्मरण पूर्वक अनुमान होता है। अतः अनुमान का होना स्मरण पर आश्रित है । इसलिए स्मरण को प्रमाण माने बिना अनुमान को प्रमाण नहीं माना जा सकता है 122 ( समीक्षा - स्मृति को परोक्ष-प्रमाण के भेदों में एक पृथक् प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित कर जैन दार्शनिकों ने 'प्रामाण्यं व्यवहारेण 23 सिद्धान्त को चरितार्थ किया है । यह सिद्धान्त यद्यपि बौद्ध दार्शनिकों ने दिया है तथापि ( 1 ) असत् अर्थ को विषय करने के कारण (2) अर्थ से अनुत्पन्न होने के कारण (3) अनवस्था दोष की प्रसक्ति होने के कारण ( 4 ) विसंवादक होने के कारण (5) अर्थाकार नहीं होने के कारण स्मृति ज्ञान को उन्होंने नहीं माना है, किन्तु लौकिक व्यवहार या अर्थक्रिया में प्रवर्तक को लेकर विचार किया जाए तो स्मृति ज्ञान के प्रामाण्य का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि हमारा समस्त व्यावहारिक ज्ञान स्मृति पर आधारित है । भाषा का प्रयोग, लेन-देन का समस्त व्यवहार, पूर्वदृष्ट या ज्ञात वस्तु का प्रत्यभिज्ञान स्मृति के बिना नहीं हो सकता । स्मृति के अभाव में व्यक्ति किसी निश्चित कार्य के लिए निश्चित समय पर प्रवृत्त भी नहीं हो सकता। यदि हमें शब्द एवं अर्थ के संकेत का स्मरण नहीं हो तो हम समुचित भाषा का प्रयोग करने में भी सक्षम नहीं हो सकते। यही नहीं घर, परिवार पिता-पुत्र आदि को पहचानने से इनकार कर सकते हैं। इसलिए व्यवहार में स्मृतिज्ञान प्रमाण है । बौद्ध दार्शनिकों का मानना है कि स्मृति को प्रमाण मानने पर इच्छा, द्वेष आदि को भी प्रमाण मानना होगा, किन्तु जैन मतानुसार इच्छा द्वेष आदि अप्रमाण है; क्योंकि वे अविसंवादक एवं ज्ञानात्मक नहीं है। स्मृति अविसंवादक ज्ञान है। जैन दार्शनिकों ने प्रमाण को ज्ञानात्मक माना है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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