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________________ १०८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई - दिसम्बर २००६ पद स्वीकृत किया है- नाम, आख्यान उपसर्ग और निपात। इन्होंने सभी संज्ञापदों - को आख्यातज्ञ स्वीकार किया है। इनके मत में क्रियापद भावप्रधान होते हैं, और संज्ञापद - प्रधान होते हैं । यहँ भारतीय शब्द दर्शन के इतिहास में सर्वप्रथम इतनी स्पष्टता से पदों का लक्षण प्रस्तुत किया गया। इसलिये यास्क को भाषायी वाक्यरचना के तार्किक विश्लेषण का प्रवर्तक माना जा सकता है। धीरे-धीरे वैदिक भाषा का प्रयोग में ह्रास होने लगा और उसका स्थान लौकिक संस्कृत भाषा लेती गयी। वेदों और वेदांगों का अध्ययन प्राचीन काल विषयक हो गया। कर्मकाण्ड से समीपता बनाये रखने के लिए ही निरुक्त और प्रातिशाख्यों का अध्ययन होता रहा । व्याकरण से संवलित संस्कृत भाषा को साधुभाषा कहा जाता था और कर्मकाण्ड में वैदिक भाषा के ही समान इसका उपयोग होता था, परन्तु अन्य लौकिक भाषाओं की अपभ्रंशता के कारण कर्मकाण्ड में उनका प्रयोग नहीं होता था । संस्कृत भाषा के लिए पाणिनि का अभ्युदय बड़ा महत्त्व रखता है। इन्होंने भाषा के अर्थ की अपेक्षा उसकी रचना, आकार एवं व्युत्पत्ति को महत्त्व दिया। पाणिनि ने शब्द और अर्थ के बीच संकेत सम्बन्ध और शब्द की नित्यता या अनित्यता जैसे प्रश्नों पर बिल्कुल विचार नहीं किया। उन्होंने अपने समय पर बोली जाने वाली भाषा को वैज्ञानिक आधार देते हुए उसका संस्कार किया। यद्यपि पाणिनि ने उपनिषदों की भाँति कहीं भी भाषा के आध्यात्मिक स्वरूप से सम्बन्धित चर्चा नहीं की, तथापि इस विषय में उनका अपना निश्चित मन्तव्य रहा होगा। पाणिनि के इन विचारों पर पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में प्रकाश डाला है। षड्दर्शन से सम्बद्ध प्रमुख सूत्रग्रंथों में मीमांसा सूत्रों में मानव- कर्तव्यों पर विचार करना प्रारम्भ किया गया। जो व्यक्ति को किसी क्रिया के प्रति प्रेरित करे, उसे धर्म कहा गया । इन्द्रियार्थसन्निकर्षज होने से प्रत्यक्ष प्रमाण धर्म का स्वरूप निश्चित नहीं कर सकता। अनुमान, उपमान आदि प्रमाण प्रत्यक्षपूर्वक होते हैं, अतः प्रेरकता में समर्थ नहीं हैं किन्तु शब्दों में प्रत्यक्षयोग्यता तथा शब्दों को संकेतित करने की नित्य शक्ति होती है जिससे उच्चरित पदों के अर्थबोध के लिए अन्य किसी प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती। इसलिए प्रेरकत्व - विधान में केवल शब्द ही समर्थ हैं। १४ शब्द से अर्थप्रतीति प्रत्यक्ष सिद्ध है, इसलिए शब्द की नित्यता सिद्ध होती है । १५ शब्द और संकेतित अर्थ का सम्बन्ध अवैयक्तिक होता है। यह सम्बन्ध मनुष्यकृत नहीं है। यह सम्बन्ध स्वाभाविक है, पद और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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