SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय विद्या में शब्दविषयक अवधारणा का विकास : १०९ तत्संकेतित अर्थ के संकेत सम्बन्ध से अनभिज्ञ शिशु भी पदों से अर्थ का व्यवहार करता है। अतः शब्द का नियत अर्थ से नित्य सम्बन्ध होना इनका स्वभाव है।१६ मीमांसक की दृष्टि से धर्म के प्रकाशन में वेद ही एकमात्र नित्य और निरपेक्ष प्रमाण है। वैशेषिक सूत्रकार कणाद का अभिमत है कि जिससे अभ्युदय (तत्त्वज्ञान) और निःश्रेयस् (आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्ति) हो, वह धर्म है। वेद धर्म का प्रतिपादक है, इसीलिये वेद का प्रामाण्य है।१७ लेकिन कणाद न तो शब्द-नित्यता को स्वीकार करते हैं और न ही शब्द और अर्थ के मध्य का सम्बन्ध स्वाभाविक ही मानते हैं। शब्द उत्पाद-विनाश वाले होने से अनित्य हैं।१८ शब्द से संकेतित अर्थ व्यक्तिकृत होता है। चूंकि ईश्वररूप पुरुष ने वेद को बनाया है, अत: वेद धर्म के स्रोत हैं।१९ शब्दविज्ञान के सम्बन्ध में न्यायसूत्रों ने मुख्यत: वैशेषिक मान्यता का ही अनुकरण किया है और एतद्विषयक कोई नवीन उद्भावना उत्प्रेक्षित नहीं की। - व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनि के बाद कात्यायन और पतञ्जलि का उद्भव होता है। पतञ्जलि ग्रन्थारम्भ में ही यह घोषणा करते है कि शब्दानुशासन का उद्देश्य साधु शब्दों का बोध कराना है, क्योंकि साधुशब्द ही व्यवहार-योग्य होते हैं तथा इस लोक और परलोक में सिद्धिदायक होते हैं।२० वैयाकरणों का मुख्य उद्देश्य यह सिद्ध करना है कि भाषा का एक विशेष प्रयोग ही फलदायक है। सभी भाषाओं के सभी शब्द अर्थवान् हो भी जांय तो भी वे साधु नहीं हो सकते। कोई शब्द असाधू होकर भी अर्थवान हो सकता है, पर असाधुशब्द फलदायी नहीं हो सकते। इस क्षेत्र में व्याकरण ने मीमांसा की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र एवं तार्किक गवेषणा प्रस्तुत की है। पतञ्जलि और कात्यायन दोनों ने यह माना है कि पाणिनि को शब्द नित्यत्ववाद२२ तथा 'नित्यजातिपदार्थवाद' अभिमत थे। पतञ्जलि ने महाभाष्य में व्याडि एवं वाज्रप्यायन के पदार्थ-विषयक मत को उल्लेखित किया है। व्याडि के मतानुसार पदार्थ व्यक्ति है और वाज्रप्यायन के मत में पदार्थ जाति है। जबकि पतञ्जलि के अनुसार स्वयं स्थिति के अनुकूल पदार्थ जाति और व्यक्ति दोनों पदार्थ हो सकते हैं। ये सभी विद्वान एक स्वर से यह मानते हैं कि भाषा बिना जाति के व्यवहत नहीं हो सकती। जातिविहीन व्यक्तिमात्र न तो ज्ञान का विषय हो सकता है और न व्यवहार का। बौद्धों ने जातिविषयक इस मान्यता का विरोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy