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________________ भारतीय विद्या में शब्दविषयक अवधारणा का विकास : १०७ "है, जिसके द्वारा परमतत्त्व के तुरीयपाद का बोध स्वीकार किया गया है।१२ भर्तृहरि ने 'वाक्यपदीय' के प्रारम्भ में जिस अक्षर शब्द का उल्लेख किया है उससे 'ऊँ' पद ही अभिमत है।१३ हमारी वाणी सत्तत्त्व की असत्य अभिव्यक्ति है। वह सत्तत्व या परावाणी ही 'ॐ' पद है और मनुष्य की वाणी इसी शब्द का प्रतिबिम्ब है और इसीलिए सार्थक भी है। अत: इससे स्पष्ट है कि शब्द से अर्थ का विचारणा की मूल वेद में है। सभी वेद शब्दरूप ही थे। लेखन शैली का विकास न होने से पूरा वैदिक वाङ्मय श्रवण परम्परा द्वारा जीवित था। वेद में अर्थ की अपेक्षा शब्द का प्राधान्य स्वीकार किया गया है। वैदिक मन्त्रों में मन्त्रार्थ की अपेक्षा के बिना ही मन्त्रों का विनियोग किया जाता रहा। इससे वैदिक ऋचाओं का महत्त्व बढ़ता गया। धीरे-धीरे वैदिक मन्त्रों में उच्चारण और अर्थ की कठिनाई को दूर करने के लिए वेदों का विकास हुआ। शिक्षा नामक वेदाङ्ग ने वैदिक मन्त्रों की स्वर सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाया, प्रातिशाख्यों में वैदिक भाषा का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। व्याकरण विद्या भाषा के गठन से सम्बद्ध थी, जिसका प्रमुख विषय भाषा का शुद्धतम् रूप प्रस्तुत करना था। निरुक्त में शब्दों के अर्थ पर विचार किया गया है। निरुक्तकार यास्क ने वैदिक शब्दों का अर्थ भाव अथवा क्रिया से अन्वित रूप में प्रस्तुत किया है। इस प्रकार शिक्षा, प्रातिशाख्य, व्याकरण और निरुक्त ने वेदों की पवित्रता को अक्षुण्ण रखते हुए वैदिक परम्पराओं एवं कर्मकाण्ड के व्यावहारिक रूप को प्रस्तुत किया। प्रातिशाख्यों की परम्परा बड़ी पुरानी है। यद्यपि उपलब्ध प्रातिशाख्य पर्याप्त बाद के हैं, सम्भवतः पाणिनि से भी उत्तरवर्ती, फिर भी उनमें प्रातिशाख्यों के मौलिक रूप का संकेत यत्र-तत्र मिलता है। ऋक् प्रातिशाख्य का प्रारम्भिक वाक्य है- ‘पदप्रकृति: संहिता' अर्थात् वाक्य पदों से मिलकर बना है- इस वाक्य पर आधारित वाक्य और वाक्यावयभूत पदों के सम्बन्ध का प्रश्न आगे चलकर मीमांसा और व्याकरण जैसे भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों द्वारा विस्तार से विवेचिन हुआ। अन्विताभिधानवाद, अभिहितान्वयवाद और स्फोटवाद के सिद्धान्त मूलत: 'पदप्रकृतिः संहिता' पर ही आधृत हैं। यास्क ने अपने निरुक्त में पूर्ववर्ती और समकालिक शब्दशास्त्रियों का • उल्लेख किया है, उदाहरणार्थ-उपमन्यु, औदुम्बरायणि, शाकटायन, गार्ग्य आदि शब्द विज्ञान को यास्क की सबसे बड़ी देन यह है कि इन्होंने चार प्रकार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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