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________________ प्राकृतिक - महाकाव्यों में ध्वनि - तत्त्व : ३ महाकवि की वाणी - रूप काव्य में निहित उसके अंग-रूप अलंकार आदि में व्यंग्य या ध्वनि की स्थिति उसी प्रकार होती है, जिस प्रकार सुन्दरियों के प्रत्यक्ष दृश्यमान अवयवों के सौन्दर्य के अतिरिक्त उन अंगों में मोती के आब या छाया की तरलता की तरह चमकने वाला लावण्य या लुनाई कुछ और ही होती है। जिस प्रकार लुनाई प्रत्यक्ष न होकर प्रतीयमान होती है, उसी प्रकार ध्वनि या व्यंग्य की प्रतीति होती है: प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् । यत्तत्प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवाङ्गनासु । । (ध्वन्यालोकः कारिका - सं०४) ध्वनिवादी साहित्यशास्त्रियों ने अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यध्वनि के उदाहरण में 'गाहासत्तसई' की इस कथा को बहुशः सन्दर्भित किया है: भम धम्म वीसत्थो सो सुणओ अज्ज मारिओ देण । गोलानईकच्छकुडंगवासिणा दरअसीहेण । । ( शतक २ : गाथा ७५) इस गाथा में किसी अभिसारिका नायिका के एकान्त संकेत- स्थल, गोदावरी नदी के तटवर्ती कुंज में फूल चुनने के लिए पहुँचे हुए विघ्नस्वरूप किसी धार्मिक से वह नायिका कहती है कि हे धार्मिक ! आप गोदावरी नदी के तटवर्ती कुंज में निर्भय भाव से भ्रमण करें; क्योंकि आज कुंज में रहने वाले मदमत्त सिंह ने आपको तंग करने वाले कुत्ते को मार डाला है । नायिका के इस कथन में कुत्ते से डरनेवाले धार्मिक के लिए सिंह से मारे जाने का भय उत्पन्न करके कुंज में इसके भ्रमण का निषेध किया गया है अर्थात्, कुत्ते की जगह सिंह के आ जाने से धार्मिक की भयस्थिति और अधिक भयावह हो गई है। यहाँ विधिरूप वाच्य में प्रतिषेधरूप व्यंग्य का विनियोग हुआ है । इस गाथा में वाच्य या मुख्य अर्थ से व्यंग्य की सर्वथा भिन्नता के कारण ही वाक्यगत अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यध्वनि की योजना हुई है। 'गाहासत्तसई' में ही अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यध्वनि का एक उदाहरण इस प्रकार है: घरिणीए महाणसकम्मलग्गमसिमलिइएण हत्थेण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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