________________
२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ किन्तु फिर भी इधर-उधर देखा तो यह लगा कि श्वेताम्बर आगम तो दिगम्बरत्व को मान्य करते हैं तथा श्वेताम्बर परम्परा में विशाल जैन साहित्य विद्यमान है और हर दिगम्बर विद्वान को इनका गहन अध्ययन करना चाहिये। यह सम्भव है कि हम उनकी कुछ बातों से कतई सहमत न हों, कई बातें अब समयानुकूल भी नहीं रहीं परन्तु इस अध्ययन से जैन धर्म की परम्परा के विकास के इतिहास का परिचय अवश्य ही मिलता है।
जहां तक न्याय, स्याद्वाद, आत्मा, कर्म आदि सिद्धान्तों का सवाल है वहां तक दोनों ही परम्पराओं के ग्रंथों में पूर्ण समानता है और शास्रकारों में आपस में खूब आदान-प्रदान हुआ है। क्या ही अच्छा हो यह सिलसिला आगे बढ़े जिससे रूढ़िवादी दीवारें गिराई जा सकें और जैन समाज की सच्ची परम्परा विकसित हो। तो आइए, इस दृष्टि से श्वेताम्बर मुख्य आगमों का कुछ सिंहावलोकन करें।
(१) भगवतीसूत्र में एक प्रसंग है – 'स्थविर और आर्य कालासवेसिय पुत्त अनगार'। इसमें लिखा है
तेणं कालेणं, तेणं समएणं पासवच्चिज्जे कालासवेसियपुत्ते णामं अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति......तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणि वासाणि सामण्ण परियागं पाउणइ, पाउणित्ता जस्सट्ठाए कीरइ नग्नभावे मुंडभावे, अण्हाणयं, अदंतवणयं, अच्छत्तयं, अणोवाहणयं, भूमिसेज्जा, फलसेज्जा, कट्ठसेज्जा, केसलोओ, बंभचेरवासो, परघरप्पवेसो, लद्धावलद्धी, उच्चावया, गामकंटगा, बावीसं परिसहोवसग्गा अहियासिज्जंति, तं अठं आराहेइ, आराहेत्ता, चरमेहिं उस्सास-नीसासेहि सिद्धे, बुद्धे, मुक्के, परिनिव्वुडे, सव्वदुखप्पहीणे।
उस समय पार्श्वनाथ के अनुयायी कालास्यवेषिक पुत्र नाम का अनगार स्थविरों के पास आया। (उनके द्वारा सामायिक, आत्मा, व्युत्सर्ग, क्रोध, मान, माया, लोभ पर चर्चा करने के पश्चात् पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म से महावीर के पंचमहाव्रतिक सप्रतिक्रमण धर्म को प्राप्त करके विहार करने लगा)...... बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय की पालना करता हुआ कालास्यवेषिक पुत्र नग्नभाव, मुंडभाव, अस्नान, अदन्तधावन, अछत्र, भूमि शय्या, फलक शय्या, काष्ठ शय्या, केशलोंच, ब्रह्मचर्यवास, परगृहप्रवेश, लब्ध्यापलब्धि, इन्द्रियों के लिए कण्टक के समान २२ परीषहों को सहने लगा और चरम उच्छ्वास निःश्वास
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org