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श्रमण, वर्ष ५७, अंक २
अप्रैल-जून २००६
श्वेताम्बर आगम और दिगम्बरत्व
जस्टिस एम० एल० जैन
कुछ वर्षों पहले विश्व प्रसिद्ध श्वेताम्बर तीर्थ राजस्थान में आबू और गुजरात में शजय (पालीताना) के दर्शन करने का पावन अवसर मिला। वहां पाया कि दोनों तीर्थस्थलों पर एक-एक दिगम्बर मन्दिर भी हैं। हां, आबू के देवस्थान का दिगम्बर मन्दिर छोटा है परन्तु पालीताना का दिगम्बर देवालय काफी बड़ा है। निश्चय ही यह श्वेताम्बर परम्परा की सहिष्णुता का परिचायक तो है ही किन्तु इसका आगम सम्मत कारण भी होना चाहिए ; हो न हो श्वेताम्बर परम्परा में भी ऐसे लोग थे जो दिगम्बर परम्परा को भी अपना ही मानते थे, ऐसा विचार भी पैदा हुआ।
श्वेताम्बर मुनि जिनविजय जी ने बताया था कि मथुरा के कंकाली टीले में जो प्राचीन प्रतिमाएं मिली हैं वे नग्न हैं और उन पर जो लेख अंकित हैं वे श्वेताम्बर ग्रंथ कल्पसूत्र में दी गई स्थविरावली के अनुसार हैं। कुछ विद्वानों की खोज यह है कि प्रारम्भ में तो तीर्थंकर मूर्तियां सर्वत्र दिगम्बर ही होती थीं किन्तु जब भेदभाव उग्र होने लगा तो एक वर्ग ने नग्न मूर्तियों के पादमूल पर वस्त्र का चिह्न बनाना प्रारम्भ कर गिरनार पर्वत पर अपनी अलग परम्परा की नींव डाली।२ गिरनार में डाली गई यह परम्परा आगे बढ़ी और ऐसा लगता है कि वैष्णव भक्तिधारा के प्रभाव से मूर्तियों को वस्त्रालंकारों से विभूषित किया जाने लगा। दोनों ही परम्पराओं के अनुसार भूषण मण्डित स्वरूप सम्पूर्ण संन्यास के पूर्व तीर्थंकरों के युवराज पद या सम्राट पद की शोभा को दर्शित करता है। लेकिन जो विचार भेद की दरार पड़ी उसने सीमा छोड़ दी और एक दूसरे के बारे में विचित्र-विचित्र कहानियां गढ़कर परस्पर निरादर और उपेक्षा ने घर कर लिया और आगम का भी अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार वर्गीकरण कर लिया। ऐसा क्यों हुआ यह जानने के लिए मुझे श्वेताम्बर मुख्य आगम सूत्रों के अध्ययन की प्रेरणा हुई। मागधी प्राकृत भाषा का ज्ञान न होने के कारण कठिनाई आई ___ * २१५, मन्दाकिनी एन्क्लेव, अलकनंदा, नई दिल्ली-११००१९
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