SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारत की अहिंसक संस्कृति : ४९ अहिंसा का निषेधात्मक के साथ उसका विधेयात्मक पक्ष भी है। अतः दोनों पक्षों का समन्वित रूप अहिंसा जैन आचारमीमांसा की रीढ है। जैन धर्म का अहिंसा पर जोर उसके तत्त्व चिंतन का ही परिणाम है। अहिंसा का आधार क्या है ? अहिंसा इस चिन्तन पर आधारित है कि संसार में अनन्त प्रकार के प्राणी हैं। और उनमें प्रत्येक में समान जीवात्मायें हैं तथा सभी में ज्ञानात्मक विकास के द्वारा परमात्म पद प्राप्त करने की अपूर्व क्षमता है। जब शक्तिरूप से सभी जीवात्माएं समान हैं तो उनमें परस्पर सद्भाव, सम्मान और सहयोग सर्वथा वांछित है, न कि वैमनस्य, वैर एवं असहयोग । सबको अपनी आत्मा प्रिय है, सबको दुःख प्रतिकूल एवं सुख अनुकूल है४, तो फिर एक दूसरे की हिंसा कैसी ? मन, वचन एवं काया से किसी भी प्राणी को दुःख न पहुंचाना, न पहुंचवाना और न पहुंचाने वाले का अनुमोदन करना अहिंसा है। यही जैन धर्म की जनतन्त्रात्मक या प्राणितन्त्रात्मक व्यवस्था है। जनतन्त्रात्मकता मनुष्य- समाज तक ही सीमित है। जैन धर्म उसे अधिक व्यापक और विस्तृत बनाकर समस्त प्राणिमात्र को उसकी सदस्यता का पात्र स्वीकार करता है। निःसन्देह अहिंसा उच्चतम नैतिक आदेश है किन्तु उसकी मर्यादायें कठोर हैं। जीवन की जितनी विषम परिस्थितियां हैं, प्राणियों में जितनी विरोधात्मक वृत्तियां हैं, उनसे अहिंसा सिद्धान्त के पूर्ण रूप से पालन किये जाने में बडी कठिनाइयां हैं। जैन धर्म को इन कठिनाइयों का बोध था और इसी लिये उसने अहिंसा सिद्धान्त में तरतम प्रणाली को स्थापित किया। गृहस्थ या श्रावक एक सीमा तक ही अहिंसा का पालन कर सकता है क्योंकि उसके दैनिक क्रिया कलापों में कुछ न कुछ हिंसा हो जाना तो अवश्यम्भावी है। अतः उनके लिये संकल्पी, विरोधी, आरम्भी एवं उद्योगी हिंसा के प्रकारों में विरोधी, आरम्भी एवं उद्योगी हिंसा में छूट दी गयी या उन्हें उतनी कड़ाई से पालन करने को नहीं कहा गया । श्रावकों के लिये जैन धर्म ने अणुव्रत की व्यवस्था की तथा जो लगभग पूर्णतया अहिंसा सिद्धान्त का पालन कर सकते हों उनके लिये महाव्रत का विधान किया। इस प्रकार दोनों अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में अहिंसा सिद्धान्त का पालन करते हैं। जैन साधुओं से पूर्ण अहिंसा की अपेक्षा की जाती है किन्तु जबतक उनका जीवन है, जीवन निर्वाह हेतु आहार, गमनागमन, शयन आदि में हिंसा की सम्भावनाओं से बचा नहीं जा सकता। परन्तु ध्येय वही है कि अल्पतम हिंसा हो । हिंसा एवं अहिंसा का हमारे हृदय की भावनाओं से गहरा सम्बन्ध है | बहुत से कार्य एसे होते हैं जिनको देखने से लगता है कि यह हिंसा का कार्य है किन्तु वहां हिंसा नहीं होती या होती भी है तो अल्प, जैसे शल्य चिकित्सक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy