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४८ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ संस्कृतिरूपी पट में बुना हुआ है जिसके धागे त्याग की कतली पर काते गयो है। त्याग का अभ्यास आन्तरिक रूप से मन को शान्ति प्रदान करता है तो बाह्य रूप से समुचित व्यवहार। ईशावास्योपनिषद्र का ऋषि “त्येन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्” मन्त्र में इसी त्याग की बात करता है। अहिंसा सिद्धान्त जैन धर्म दर्शन की आधारभित्ति है, उसका प्राण है। इस सिद्धान्त का एक क्रमिक विकास हुआ है। वेदों, उपनिषदों से होते हुए महाभारतकाल में अहिंसा का अधिक विकास हुआ। शान्तिपर्व में कहा गया है कि जिस स्थान पर वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, सत्य, इन्द्रिय-संयम एवं अहिंसा व्रतों का पालन हो, वही स्थान वरेण्य होता है। भगवद्गीता जो महाभारत का ही एक अंश है, और जो सभी आध्यात्मिक सिद्धान्तों का समन्वय करती है, अहिंसा को प्रमुखतया प्रतिपादित करती है। मीमांसक 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" कहकर हिंसा के दोष से भले ही पल्ला झाड लेते हों लेकिन उत्तर मीमांसा में उन्हीं याज्ञिकों के एक वर्ग ने हिंसा को हिंसा माना और उसका निषेध किया।
हिंसा है क्या? अपने मन, वाणी और शरीर के द्वारा प्रमादवश किसी भी प्राणी के प्राणों का विच्छेद कर डालना३ अथवा प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से किसी भी प्रकार का कष्ट पहुंचाना हिंसा है। इसके विपरीत मन, वाणी और शरीर के द्वारा सावधानी से किसी भी प्राणी को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंचाना अहिंसा है। अहिंसा, हिंसा का मात्र अभाव नहीं अपितु वह जीवन जीने की कला है, जीवन-सद्व्यवहार है। हिंसा का कारण है -क्रोध, मान, माया एवं लोभ जिसे जैन धर्म की शब्दावली में कषाय कहा गया है। संसार परिभ्रमण के कषाय ही कारण हैं। इन पर यदि विजय प्राप्त कर ली जाय तो कुछ भी अविजित नहीं रहता है। भगवान बुद्ध ने जिस शील की देशना अपने शिष्यों को दी उसके तीन प्रकारों- आरम्भिक, मध्यम एवं महाशील में अहिंसा को प्रमुखता दी गयी है। अहिंसा पर ही जैन धर्म के सभी सिद्धान्त आधारित हैं। चाहे वह सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का सिद्धान्त हो या अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का सिद्धान्त हो, इन सबके मूल में अहिंसा है। अहिंसा अपने स्वरूप में एक निषेधात्मक गुण है, इसमें सन्देह नहीं। यथार्थतः पांचो ही व्रत अहिंसा, अचौर्य, अमैथुन और अपरिग्रह के नाम और स्वरूप से यही सिद्ध होता है कि हिंसादि नहीं करना चाहिये। पातञ्जल योगशास्त्र में इसके निषेधात्मक स्वरूप को और भी स्पष्टता से प्रकट किया गया है। अष्टांगयोग के यम और नियम इसी को धोतित करते हैं। क्या नहीं करना चाहिये यह यम योग का विषय है जबकि क्या करना चाहिये यह नियम का विषय है। किन्तु
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