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४४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ को सुख-दुःख का अनुभव होता है। जीवन-मरण की प्रतीति होती है। सभी जीवन जीना चाहते हैं, कोई भी जीवन मरने की इच्छा नहीं करता। अतः हमारा परम कर्तव्य है कि मन, वचन, और काय से हम किसी को भी कष्ट न दें। मन, वचन और काय से किसी प्राणी को कष्ट न देना पूर्ण अहिंसा है। आचार का यह महत्त्वपूर्ण विकास जैनधर्म की अपनी अमूल्य देन है।
अहिंसा को केन्द्र मानकर, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य ओर अपरिग्रह का विकास हुआ है। इसका यही तात्पर्य है कि सभी व्रतों का मूल आधार अहिंसा ही है। अहिंसक व्यक्ति असत्य भाषण नहीं कर सकता। अहिंसक व्यक्ति चोरी नहीं कर सकता, अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं कर सकता और परिग्रह भी नहीं कर सकता। परिग्रह आत्म-विकास का बाधक तत्त्व है। जहां पर परिग्रह है, वहां पर आत्म-पतन है। परिग्रह की अभिवृद्धि से जन-जीवन में विषमता उत्पन्न होती है। इसलिये अहिंसक व्यक्ति अपरिग्रही होता है।
अहिंसा किसी भौतिक तत्त्व का नाम नहीं है, वह मानव मन की एक वृत्ति है, भावना है, विचार है। भावना-मन की क्रूरवृत्ति हिंसा है और कोमलवृत्ति अहिंसा है। अहिंसा मानव-मन का अमृत है और हिंसा विष है। अहिंसा जीवन है तो हिंसा मरण है। अहिंसा स्याग है तो हिंसा भोग है, अहिंसा जगमगाता प्रकाश है तो हिंसा घोर अन्धेरा है।
__ जैन संस्कृति की चिन्तन धारा के अनुसार, धर्म के महामंदिर में प्रविष्ट होने के लिये सर्वप्रथम अहिंसा के मुख्य द्वार को स्पर्श करना अनिवार्य है। दया, अनुकम्पा, सेवा-भाव, मैत्रीभाव आदि सभी सद्भावों में “अहिंसा' का ही प्रतिबिम्ब झलकता है। भारतीय श्रमण संस्कृति, विशेषकर जैन संस्कृति तो अहिंसा की प्रबल पक्षधर रही है। उसके विचारों ने भारतीय वैदिक संस्कृति को अत्यधिक प्रभावित किया । दोनों संस्कृतियों के संगम ने “अहिंसा' को एक व्यापक व सर्वमान्य आयाम दिया जिसे भारतीय वाड्.मय में स्पष्ट देखा जा सकता है। जैन दर्शन ने “अनेकान्तवाद' को उपस्थापित कर वैचारिक धरातल पर अहिंसा को नये रूप में प्रतिष्ठापित किया और वैचारिक सहिष्णुता, आग्रहहीनता को अहिंसक दृष्टि से जोड़ा। जैन संस्कृति ने अहिंसा के सूक्ष्म से सूक्ष्म पक्षों पर प्रकाश डालते हुए समता, संयम व आत्मोपम्य दृष्टि से जोड़ कर अहिंसा को व्याख्यायित किया।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि वैदिक संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति (बौद्ध
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