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________________ वैदिक एवं श्रमण परम्परा में अहिंसा : ४३ की प्रत्येक वस्तु द्रव्यदृष्टि से नित्य है, पर्यायदृष्टि से अनित्य है, इसलिये तत्त्व रूप से परिणामीनित्य है किन्तु वह एकान्त नित्य और अनित्य नहीं है । आचार के सन्दर्भ में बौद्धों के पंचशील जैनधर्म के पंचमहाव्रत के समकक्ष हैं। वास्तव में पंचमहाव्रत सम्पूर्ण श्रमणाचार की आधारशिला है। पंचमहाव्रत ही श्रमण-आचार का वह केन्द्र - बिन्दु है, जहां से अनेक त्रिज्यायें विभिन्न नियमोंउपनियमों के रूप में प्रसारित होती हैं अथवा संघटित होकर केन्द्ररूपी पंचमहाव्रत की सुरक्षा और विकास के विस्तृत आयाम प्रस्तुत करती हैं। पंचमहाव्रतों को श्रमण जीवनभर के लिये मन, वचन, काय से धारण करता है और इनकी सर्वांशतः सुरक्षा करता हुआ निर्वाण की भूमिका तक पहुँचने में सक्षम होता है। भगवान महावीर ने अपने धर्म का मूलाधार अहिंसा माना है और अहिंसा के ही विस्तार में उन्होंने पंचमहाव्रतों को स्थापित किया । अहिंसा को जैन धर्म में परम धर्म माना गया है। अहिंसा को धर्म मानने वाले तो सभी भारतीय दार्शनिक हैं परन्तु अहिंसा को ही परम धर्म, मानव का सच्चा धर्म, मानव का सच्चा कार्य मानने वाले केवल जैन लोग है। तात्पर्य यह है कि- किसी भी प्रकार की हिंसा को जैनधर्म में पाप माना गया है। हिंसा न करना तथा सभी जीवों पर दया रखना इत्यादि अहिंसा का अर्थ तो सर्वत्र समान है। परन्तु सर्वतोभावेन अहिंसा व्रत का पालन करना तो जैन धर्म की ही देन है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि वैदिक संस्कृति की अपेक्षा श्रमण संस्कृति में अहिंसा का अधिक महत्त्व है। वैदिक संस्कृति में जीवों की हिंसा न करना तथा जीवों के प्रति दया का भाव रखना आदि उपदेशों को बार-बार दुहराया गया है परन्तु साथ ही साथ यज्ञ में दिये गये निरीह पशु की बलि को हिंसा नहीं माना जाता (वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ) । महाकरुणा के अवतार भगवान बुद्ध, ने अहिंसा (सभी जीवों के प्रति दया और समानता) का पाठ पढ़ाया परन्तु बौद्ध भिक्षुओं को अश्रुत, अदृष्ट तथा अगोचर मांस भक्षण की अनुमति दे दी। जैन धर्म में किसी को मारना तो दूर रहा छोटे से छोटे जीव को कष्ट पहुंचाना भी हिंसा है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म विश्लेषण जैन धर्म में किया गया है, उतना - विश्व के किसी भी धर्म में नहीं है। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय प्रभूति किसी भी प्राणि की मन, वचन और कार्य में हिंसा न करना, करवाना और न अनुमोदन करना जैन धर्म की अपनी अनुपम विशेषता है। अहिंसा का मूलाधार आत्मसाम्य है। विश्व की जितनी भी आत्माएं हैं उनमें तात्त्विक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। वे सभी समान हैं। प्रत्येक प्राणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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