________________
४२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ हैं? देवता लोग इन सृष्टियों के अनन्तर उत्पन्न हुए हैं। कहां से सृष्टि हुई यह .. कौन जानता है?
ये विविध सृष्टियां कहां से हुईं, किसने सृष्टियाँ की, और किसने नहीं की- ये सभी बातें वे ही जानें जो इनके स्वामी परमधाम में रहते हैं। सम्भव है वे भी सब कुछ न जानते हों।
जैनदर्शन विश्व के सम्बन्ध में किञ्चत् मात्र भी संदिग्ध नहीं है। उसका स्पष्ट अभिमत है कि चेतन से अचेतन उत्पन्न नहीं होता और अचेतन से चेतन की सृष्टि नहीं होती। किन्तु चेतन और अचेतन ये दोनों अनादि हैं।
जैनदर्शन में तत्त्व की व्यवस्था दो प्रकार से की गयी है- षद्रव्य रूप में तथा सप्त-तत्त्व या नव पदार्थ के रूप में। (द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ इन तीनों का एक ही अर्थ है)
जैनदर्शन में विभिन्न स्थलों पर और विभिन्न प्रसंगों पर सत्, सत्व, तत्त्वार्थ, अर्थ, पदार्थ और द्रव्य-इन शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया ... गया है। अत: ये शब्द एक दूसरे के पयार्यवाची रहे हैं। आचार्य उमास्वाति ने
अपने तत्त्वार्थ-सूत्र में तत्त्वार्थ, सत् और द्रव्य शब्द का प्रयोग तत्त्व अर्थ में किया है। अत: जैनदर्शन में जो तत्त्व है वह सत् है और जो सत् है वह द्रव्य है। केवल शब्दों में अन्तर है, भावों में कोई अन्तर नहीं है। आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा है- द्रव्य के दो भेद हैं- जीवन द्रव्य और अजीवन द्रव्य। शेष सम्पूर्ण संसार इन दोनों का ही प्रपंच है, विस्तार है। सत् क्या है? इस प्रश्न का उत्तर बौद्धदर्शन इस प्रकार देता है- यत्क्षणिकं तत् सत्", इस विश्व में जो कुछ है वह सब क्षणिक है। बौद्ध दृष्टि से जो क्षणिक है वही सत् है, वही सत्य है। इसके विपरीत वेदान्तदर्शन का अभिमत है कि जो अप्रच्युत, अनुत्पन्न, एवं एकरूप है वही सत् है, शेष सभी कुछ मिथ्या है। बौद्धदर्शन इस प्रकार एकान्त क्षणिकवादी है और वेदान्तदर्शन एकान्त नित्यतावादी है। दोनों दो किनारों पर खड़े है। जैनदर्शन इन दोनों एकान्तवादों को अस्वीकार करता है। वह परिणामीनित्यवाद को मानता है। सत् क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में जैनदर्शन का यह स्पष्ट अभिमत है कि जो उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य-युक्त है वही सत् है, तत्त्व है और द्रव्य है। उत्पाद और व्यय के अभाव में ध्रौव्य कदापि नहीं रह सकता
और ध्रौव्य के अभाव में उत्पाद और व्यय नहीं रहते। एक वस्तु में एक समय में उत्पाद भी हो रहा है, व्यय भी हो रहा है, और ध्रुवत्व भी रहता है। विश्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org