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वैदिक एवं श्रमण परम्परा में अहिंसा : ४१
भी स्पष्ट होता है कि उत्तराध्ययन के सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान धम्मपद के समाधि और प्रज्ञा स्कन्ध के समकक्ष हैं। धम्मपद का शील स्कन्ध उत्तराध्ययन के सम्यक् चारित्र में सरलता से अन्तर्भूत हो जाता है। वस्तुतः बौद्ध और जैनधर्म के आचार में मौलिक समानतायें हैं। बौद्धों के शील जैनव्रतों से सहज ही तुलनीय हैं। अहिंसा के सम्बन्ध में दोनों में किंचित् दृष्टिभेद अवश्य था और तत्त्वमीमांसा के मौलिक अन्तर के कारण दोनों की ध्यान पद्धतियों में भी असमानतायें थीं, परन्तु दोनों में सबसे महत्त्वपूर्ण भेद यह था कि जहां जैन धर्म काय - क्लेश और कठोर तप पर बल देता था, बौद्धधर्म अतिवर्जना और मध्यम मार्ग के पक्ष में था। धम्मपद और उत्तराध्ययन से इन तथ्यों की भी पुष्टि होती है। धम्मपद और उत्तराध्ययन दोनों में पुण्य-पाप की अवधारणायें प्राय: समान हैं। दोनों में याज्ञिकी हिंसा तथा वर्ण-भेद की आलोचना है। दोनों सदाचरण को ही जीवन में उच्चतानीचता का प्रतिमान मानते हैं और ब्राह्मण की जन्मानुसारी नहीं अपितु कर्मानुसारी परिभाषा प्रस्तुत करते हैं।
जैन और बौद्ध दर्शन सृष्टिवाद को नही मानते हैं। बौद्धदर्शन परिवर्तनवादी है। उसमें परिवर्तन की प्रस्तुत प्रक्रिया " प्रतीत्य समुत्पादवाद" के नाम से कही गयी है। यह अहेतुकवाद है। इसमें कारण से कार्य पैदा नहीं होता परन्तु सन्ततिप्रवाह में पदार्थ उत्पन्न होता है।
जैनदर्शन के अनुसार विश्व में जो कुछ भी परिवर्तन दिखलायी दे रहा है, वह जीव और पुद्गल के संयोग से होता है। वह परिवर्तन दो प्रकार का है
(१) स्वाभाविक ।
(२) प्रायोगिक ।
स्वाभाविक परिवर्तन सूक्ष्म होने से चर्मचक्षुओं से दिखायी नहीं देता, किन्तु प्रायोगिक परिवर्तन स्थूल होने से दिखलायी देता है। जीवन और पुद्गल के सांयोगिक अवस्था से ही यह दृश्य जगत् प्रवहमान है।
वैदिक ऋषि विश्व के सम्बन्ध में संदिग्ध रहे हैं। उनका अभिमत है कि प्रलय दशा में असत् भी नहीं था, सत् भी नहीं था, पृथ्वी भी नहीं थी, आकाश भी नहीं था। आकाश में विद्यमान सातों भुवन भी नहीं थे।
प्रकृति तत्त्व को कौन जानता है ? कौन उसका वर्णन करता है? यह सृष्टि किस उपादान कारण से हुई ? किस निमित्त कारण से ये विविध सृष्टियां हुई
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