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________________ वैदिक एवं श्रमण परम्परा में अहिंसा : ३९ है, वह किसी की हिंसा नहीं कर सकता । अहिंसा की यह प्रतिष्ठित स्थिति आधुनिक युग तक विद्यमान है, यह तथ्य हिन्दी साहित्य के मूर्धन्यसंत कवि तुलसीदास जी द्वारा रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) में कहे गये वचन "परम धर्म श्रुति - विदित अहिंसा" से रेखांकित होता है। भारतीय श्रमण संस्कृति (बौद्ध और जैन संस्कृति) दोनों ने ही जातिवाद एवं कर्मकाण्ड को महत्त्व न देकर आन्तरिक विशुद्धि और सदाचार पर बल दिया। उसके विचारों ने भारतीय वैदिक संस्कृति को अत्यधिक प्रभावित किया है। भगवान महावीर के पावन - प्रवचन गणिपिटक (जैन - आगम) के रूप में विश्रुत हैं, तो बुद्ध के प्रवचनों का संकलन त्रिपिटक (बौद्धागम) के रूप में प्रसिद्ध है। बौद्ध तथा जैन दोनों धर्म सांसारिक जीवन में दुःख की सर्वव्यापकता स्वीकार करते हैं और दुःख - विमुक्ति का आदर्श रखते हैं। जैन आगम उत्तराध्ययन में अविनश्वर सुख की प्राप्ति के लिये चेतन और अचेतन के संयोग और वियोग की आध्यात्मिक प्रक्रिया का सम्यक् ज्ञान आवश्यक बताया गया है। इस प्रक्रिया को जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य तथा पाप के द्वारा व्यक्त किया गया है। हिंसादि अशुभ कार्यों से अजीव से जीव का बन्ध होता है और अहिंसादि शुभ कार्यों से जीव मुक्त होता है। कुछ इसी प्रकार के सत्य का साक्षात्कार भगवान बुद्ध ने भी किया। यद्यपि वे चेतन-अचेतन द्रव्यों की नित्य सत्ता में विश्वास नहीं करते थे और अनित्यता, अनात्मता तथा दुःख को सांसारिक जीवन के प्रधान लक्षण मानते थे। उन्होंने अपने स्वानुभूत ज्ञान को चतुरार्य सत्यों के रूप में व्यक्त किया- दुःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध तथा दुःखनिरोध-मार्ग । दुःखनिरोध के लिये जिन उपायों को धम्मपद में बतलाया गया है वे ही प्रायः उत्तराध्ययन में भी हैं । अन्तर इतना ही है कि जहां बौद्ध दर्शन नैरात्म्य पर जोर देता है वहां उत्तराध्ययन उपनिषदों की तरह आत्मा के सद्भाव पर। उपर्युक्त चार बौद्ध सत्यों की तुलना उत्तराध्ययनसूत्र के जैन तत्त्व - योजना से निम्न रूप से की जा सकती है। धम्मपद का दुःख-तत्त्व उत्तराध्ययन के बन्धन - तत्त्व से, दुःख हेतु आस्रव से, दु:ख निरोध मोक्ष से, और दुःखनिरोधमार्ग (अष्टांगिकमार्ग) संवर और निर्जरा से तुलनीय हो सकते हैं । ४ आगे चलकर इसमें शरण गमन, अर्हत्तत्त्व, कर्म एवं निर्वाण का विवेचन है । बुद्ध, धर्म और संघ की शरण को 'त्रिशरण' कहते हैं। बौद्ध धर्म में इनको 'त्रिरत्न' माना गया है और प्रत्येक बौद्ध के लिये इनकी अनुस्मृति आवश्यक कही गयी है । बुद्ध की अनुस्मृति का अर्थ है, उनके अर्हत्व आदि गुणों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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