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________________ वैदिक एवं श्रमण परम्परा में अहिंसा : ३७ ४. शौचं संकरवर्जनम् - अशुद्ध वस्तु से सम्बन्ध न रखना शौच है। ५. सन्तोषो विषयत्यागो - विषय का त्याग सन्तोष है। ६. ह्री कार्यनिवर्तनम् - अनुचित कार्यों से निवृत्ति रहना ही ही है। ७. क्षमाद्वन्द्वसहिष्णुत्वम् - कलह होने पर भी सहना क्षमा है। ८. आर्जवं समचितता - सबमें समदृष्टि रखना आर्जव है। ९. ज्ञानं तत्त्वार्थसम्बोध: - आत्मतत्त्व का बोध ज्ञान है। १०. समचित्त प्रशान्तता - मन का चंचल न होना शम है। ११. दयाभूतहितैषित्वम् - सभी प्राणियों का हितैषी होना दया है। १२. ध्यान निर्विषयं मनः - मन का विषयरहित बनना ध्यान है। इस विवरण से स्पष्ट है कि सामान्य धर्म का तात्पर्य मानव का सर्वतोमुखी विकास है। इन गुणों का पालन करने में सबका सभी समय कल्याण होगा। श्रीमद्भागवत (७/११/२/१२) में बतलाया गया है कि देव-ऋषि नारद ने युधिष्ठिर को अग्रलिखित तीस गुणों को सामान्य आचार के अन्तर्गत बतलाया है। ___ महात्मा मनु ने धर्म के सुप्रसिद्ध दस लक्षणों का वर्णन किया है- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध और अहिंसा ये दस लक्षण है। इन दस लक्षणों में साधारण धर्म के प्रायः सभी लक्षणों का समावेश हो जाता है। मनु के दस लक्षणों के अतिरिक्त भी कुछ और साधारण धर्म माने गये हैं। महाभारत को पञ्चम् वेद माना जाता है। इसमें आचार के सभी नियम विस्तार से बतलाये गये हैं। महाभारत के अनुसार सत्य, दम, तप, शौच, सन्तोष लज्जा, क्षमा, आर्जव, ज्ञान, दया और ध्यान सामान्य सनातन धर्म हैं तथा अक्रूरता, अहिंसा, अप्रमाद, संविभागिता, श्राद्धकर्म, अतिथि-सत्कार, सत्य, अक्रोध, स्वपत्नी-सन्तोष, शौच, सदा अनसूया, आत्मज्ञान और तितिक्षा को साधारण धर्म कहा गया है। इससे स्पष्ट होता है कि सामान्य, सनातन और साधारण धर्म में विशेष अन्तर नहीं है। प्राय: मनु-स्मृति के समान ही याज्ञवल्क्य स्मृति में दस यम और दस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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