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________________ ३६ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ प्राप्त होता है। भारतीय संस्कृति के उषाकाल से ही “अहिंसा' यहां के धर्म-दर्शन में पूर्णतया मुखरित होती रही है। “संगच्छध्वं, संवदध्वं, “समाना हृदयानि वः, "मित्रस्त चक्षुषा समीक्षामहे" तथा "सहृदयं सांमनस्यम् अविद्वेष कृणोमि"इत्यादि वैदिक ऋषियों की वाणी में अहिंसा की जो सरिता प्रवाहित हुयी, उसने परवर्ती सांस्कृतिक व दार्शनिक धरातल की वैचारिक फसल को अनवरत रूप से सींच कर संवर्द्धित किया है। यद्यपि कभी-कभी यज्ञ आदि के सन्दर्भ में अहिंसा धर्म की विकृत व्याख्या किये जाने से अहिंसा का स्वर कुछ मन्द पड़ा तथापि अन्ततोगत्वा अहिंसा की ही विजय हुई। भारतीय संस्कृति के महान प्रतिनिधिसाहित्य पुराणों व महाभारत में "अहिंसा परमो धर्मः" का उच्च उद्घोष मुखरित हुआ और यह सिद्ध हुआ कि अहिंसा की जड़ें भारतीय जन-मानस में बहुत गहरी व सशक्त हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति के टीकाकार विज्ञानेश्वर के अनुसार अहिंसा आदि सामान्य धर्म का आचरण चाण्डाल के लिये भी आवश्यक है। अतः सामान्य धर्म तो मानव धर्म है। महाभारत के अनुसार एताद्वि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत । निर्वैरिता महाराज सत्यमक्रोध एव च ।। तात्पर्य यह कि शत्रुविहीनता, सत्य और अक्रोध ये तीन सर्वश्रेष्ठ गुण हैं। महात्मा मनु का कहना है कि अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । एतं सामासिकं धर्मं चतुर्वयेऽब्रवीन्मनुः ।। १०/६३ तात्पर्य यह है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह आदि सभी बड़ों के धर्म हैं। . सामान्य धर्म अथवा सभी लोगों के लिये आचरणीय धर्म निम्नलिखित हैं१. सत्यं भूतिहितं प्रोक्तं - सभी प्राणियों के लिये हितकर सत्य वचन है। २. मनसो दमनं दमः - मन को वश में करना दम है। ३. तप: स्वधर्मवतित्वं - अपने धर्म पर स्थिर रहना तप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525058
Book TitleSramana 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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