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श्रमण, वर्ष ५७, अंक २|
अप्रैल-जून २००६
वैदिक एवं श्रमण परम्परा में अहिंसा
डॉ. रीता अग्रवाल डॉ. अनीता अग्रवाल
अहिंसा सभी धर्मों की, विशेषत: भारतीय धर्मों की प्राण है। यह प्रत्येक धर्म की आचार-संहिता में कहीं न कहीं अनुस्यूत है। पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक व आर्थिक सभी समस्याओं का समाधान है अहिंसा। नैतिकता हो या आध्यात्मिकता-दोनों को अनुप्राणित रखने वाली अहिंसा ही है। निर्मल चेतना से अनुशासित, विधायक और व्यवहार्य जीवन विधान है- अहिंसा। वह मानव समाज की सबसे बड़ी आध्यात्मिक पूंजी है। वह एक आन्तरिक दिव्य प्रकाश है, मानवता की एक सहज-स्वाभाविक शाश्वत ज्योति है। वह मानव का अविनाशी अविकारी स्वभाव है। वह सहृदयता का असीम विस्तार है। प्रकाश की अन्धकार पर, प्रेम की घृणा पर, तथा अच्छाई की बुराई पर विजय का . सर्वोच्च उद्घोष है- अहिंसा।
मानव-मात्र को ही नहीं, अपितु प्राणीमात्र को परस्पर सह-अस्तित्व, स्नेह-सौहार्द, सहभागिता व सद्भावना के सूत्र से जोड़ने वाली वैश्विक सामाजिकता का ही दूसरा नाम है- अहिंसा। अहिंसा वह शक्ति है जो विश्व के समग्र चैतन्य को एक धरातल पर ला खड़ी करती है। अहिंसा के सिवा और कोई आधार नहीं, जो खण्ड-खण्ड होती हुई मानव जाति को एकरूपता दे सके या उसे विश्वबन्धुत्व के सूत्र में बांध सके। मानव-जाति के प्राकल्पिक भेदों व विषमताओं के स्थान पर समता व शान्ति स्थापित करने की क्षमता अहिंसा में ही है। अहिंसा को जीवन के हर एक क्षेत्र में व्यापक बनाकर ही, राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की पहल की जा सकती है। उपर्युक्त वैचारिक परिप्रेक्ष्य में, अहिंसा को ही मानव-धर्म या विश्व-धर्म के रूप में प्रतिष्ठित होने का गौरव * रीडर, शिक्षाशास्त्र विभाग, अग्रसेन कन्या स्वायत्तशासी पी.जी.कालेज, वाराणसी। ** वरिष्ठ प्रवक्ता, शिक्षाशास्त्र विभाग, आर्य महिला डिग्री कालेज, वाराणसी।
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