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३४ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६
५. विनयपिटक, महावग्ग, पृष्ठ- १६।
६. वही, पृष्ठ- १२४।
७. सुकुमारदत्त, अर्ली बुद्धिस्ट मोनेशिज्म, जि०-१, पृष्ठ- २८४।
८. महावग्ग, १, ७७।
९. गोविन्द चन्द्र पाण्डे, बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृष्ठ- १४४ ।
१०. शतपथ ब्राह्मण (अच्युत ग्रन्थमाला), जि०-१, पृष्ठ- १ ।
११. बी० एन० सिंह, बौद्ध धर्म एवं दर्शन,
पृष्ठ- १५३ ।
१२. प्रातिमोक्ख (विविध अपराधों और उनके समुचित दण्डों की वर्गीकृत सूची) का पाठ विस्तार से किया जाता था।
१३. महावग्ग, २, ३, ३,।
१४. गोविन्द्र चन्द्र पाण्डे, बौद्ध धर्म का विकास,
पृष्ठ- १४८।
१५. जय शंकर मिश्र, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृष्ठ- ८४८।
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जनमानस के मोती
स्वाति नक्षत्र था। वारिद जल - बिन्दु तेजी से चला आ रहा था। वृक्ष की हरित नवल कोंपल ने रोकर पूछा- “प्रिय ! किधर चले ?" "भद्रे ! जलनिधि पर सूर्य की कोपदृष्टि हुई है, वह उसे सुखाए डाल रहा है। जलनिधि की सहायता करने जा रहा हूँ। "
" छोड़ो भी व्यर्थ की चिन्ता। खुद को मिटाकर भी कोई किसी की सहायता करता है? चार दिन की जिंदगी है, कर लो आनन्द भोग। कहाँ मिलेगी कोमल शय्या !”
जल-1 - बिन्दु ने एक न सुनी। तेजी से लुढ़क पड़ा सागर की ओर । नीचे तैर रही थी सीप। उसने जल - बिन्दु को आँचल में समेट लिया, वह जल-बिन्दु न रहकर हो गया " मोती" । सागर की लहरों से एक धीमी-सी ध्वनि निकली- “निज अस्तित्व की चिन्ता छोड़कर समाज के कल्याण के लिए जो अग्रसर होते हैं, वे बन जाते हैं जनमानस के मोती । ”
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