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३२ : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६ के घर भिक्षा ग्रहण करना, अप्रतिसंविदित भोजन को पहले ग्रहण करना, यही प्रतिदेशनीय धर्म है।
'शैक्ष शिष्ट' व्यवहार के नियमों का संग्रह है, जिन्हें भिक्षुओं को सीखना चाहिये तथा अधिकरण-शमथ में संघ के झगड़े मिटाने के तरीकों को बताया गया है। भिक्षुणियाँ
भिक्षु संघों की भाँति भिक्षुणी संघों की भी स्थापना की गयी थी। संघ में त्रियों का प्रवेश बुद्ध को अभीष्ट न था। महाप्रजापति गौतमी ने संघ में प्रवेश की अनुमति मांगी थी, परन्तु महात्मा बुद्ध ने इसे स्वीकार नहीं किया। बाद में आनन्द ने अनुमति के लिये भगवान बुद्ध से प्रार्थना की, अनुमति प्राप्त हुई
और स्त्रियाँ भी भिक्षुणी बनकर संघ में जाने लगी - गौतमी, उत्पल वर्णा, श्रृंगाल माता, खेमा, पटाचारा आदि अनेक स्त्रियों को संघ में लिया गया। तथागत ने अनुरोध स्वीकार किया परन्तु इसके साथ आठ शर्ते भी लगा दी१५१. भिक्षुणियाँ श्रमणों का आदर करेंगी। २. अ-भिक्षु कुल में भिक्षुणियों का वर्षावास नहीं होगा। ३. प्रत्येक पखवारे भिक्षुणियाँ भिक्षु संघ में उपोसथ प्राप्त करेंगी। ४. वर्षावास के बाद भिक्षुणियाँ दोनों संघों में प्रवारणा करेंगी। ५. भिक्षुणियाँ दोनों संघों में पक्षमानता करेंगी। ६. दो वर्ष ६ माह में दोनों संघों से उपसम्पदा की प्रार्थना करनी होगी। ७. भिक्षुणी को आक्रोश परिभाषण नहीं करना होगा। ८. भिक्षुणियों के लिये भिक्षुओं को कुछ कहने का मार्ग निरुद्ध है।
भिक्षुणियों के लिये प्रज्ञप्त छह शिक्षापदों का निर्देश है जो उनके लिये वर्जित थे- हिंसा, चोरी, ब्रह्मचर्यहीनता, मृषावाद, मद्यपान और विकाल भोजन। इसके अतिक्ति भी भिक्षुणियों के लिये अनेक नियम निर्दिष्ट थे। वर्षावास
नदियों की बाढ़ और बरसात में यातायात अत्यन्त कठिन था। ऐसी स्थिति में तथागत ने अपने अनुयायियों के लिये वर्षावास का विधान किया। आषाढ़ी
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