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३० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक २ / अप्रैल-जून २००६
इन दस शिक्षापदों से श्रामणेरों का शील परिभाषित होता है। . चार निश्रय
विनय में चार निश्रयों का विवरण इस प्रकार मिलता है- (१) भिक्षा में मिला हआ भोज्य पदार्थ (२) पड़े चिथड़ों का बनाया हआ चीवर (३) वृक्ष के नीचे निवास (४) गोमूत्र से निर्मित औषधि का सेवन। इन चार नियमों के साथ चार अतिरेक लाभ भी बताये गये हैं। प्रथम निश्रय के साथ अतिरेक लाभ रूप में संघभोज निमन्त्रण का भोज अनुमत था। दूसरे नियम का अतिरेक कम्बल, कार्पास, कौशेय, क्षौम, सन आदि वस्रों को धारण करना था। वृक्ष-मूल घार के अतिरिक्त विहार, प्रासाद, हर्म, गहा आदि में वास है। औषध में अतिरेक लाभ के रूप में घी, मक्खन, तेल, मधु और खांड का प्रयोग भी किया जा सकता था। उपोसथ
किसी निश्चित तिथि तथा समय पर एकत्र होकर धर्मोपदेश करना तथा सुनना ही उपोसथ कहलाता है। भिक्षु संघ के लिये यह आवश्यक था कि सभी भिक्षु चतुर्दशी, पूर्णमासी या पक्ष की अष्टमी के दिन एक स्थान पर एकत्र हों तथा धर्म और विनय का पाठ करें। इस प्रकार भिक्षु उपोसथ के दिन एकत्र होकर तथागत के द्वारा उद्दीष्ट प्रातिमोक्ष का पाठ करते थे तथा जिस भिक्षु को आपत्ति अथवा व्यतिक्रम होता है उसे यथाधर्म अनुशासित करते थे। इस प्रकार धर्म के द्वारा संघ का संचालन होता था। वैदिक धर्म में भी दर्श और पूर्णमास की पाक्षिक इष्टियों का बहुत महत्त्व था। इनके लिये यज्ञ के पूर्व यजमान को दीक्षित होकर उपवास आदि विशेष नियमों से रहना पड़ता था और इस व्रत काल को उपवसथ कहा जाता था।१० उपोसथ के अवसर पर तथागत की प्रमुख शिक्षायें संक्षेप में दुहराई जातीं और यही धर्मोपदेश का रूप था। इस अवसर पर भिक्षु के लिये आवश्यक था कि वह परिशुद्ध शील हो। जिनके शील में कोई कमी होती थी उन्हें उपोसथ में सम्मिलित होना निषिद्ध था। अपराधी भिक्षुओं पर भी इसी दिन विचार होता था। समग्र संघ की उपस्थिति में अपराधों की सूची पढ़ी जाती थी तथा धर्म विनय के नियमों की अवहेलना करने वाले भिक्षुओं को दण्डित किया जाता था।११ प्रातिमोक्ष
भिक्षुओं के एकत्रित हो जाने पर एक विद्वान समर्थ भिक्षु सभा की
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