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बौद्ध भिक्षु संघ का विकास और नियम : २९
• पन्द्रह वर्ष से कम के व्यक्ति को प्रव्रज्या नहीं दी जा सकती थी। शुद्धोदन शाक्य के अनुरोध से तथागत ने यह भी स्वीकार किया कि माता-पिता की अनुमति के बिना पुत्र को प्रव्रज्या न दी जाये।
जो पहले किसी बौद्धेतर परिव्राजक गण के अनुगत थे उनके लिये आवश्यक था कि वे संघ में प्रवेश के अनन्तर चार महीने तक 'परिवास' (प्रोबेशन) व्यतीत करें। इस समय में उनके आचरण को परखा जाता था। संघ के नियम
संघ के सभी नियमों का संकलन विनयपिटक में है। इन सभी नियमों का महत्त्व शील, समाधि और प्रज्ञा के लिये है। प्रस्तुत विनय के अनुसार प्रव्रज्या प्राप्त करने पर भिक्षु 'श्रामणेर' कहा जाता था। उसे एक उपाध्याय और एक आचार्य चुनकर इनके 'निश्रय' में रहना पड़ता था। श्रामणेर के लिये उपाध्याय की विविध सेवा विहित थी। वस्तुत: इनका सम्बन्ध बहुत कुछ वैदिक परम्परा में गुरु
और शिष्य के जैसे था। आचार्य और उपाध्याय के कर्तव्यों में भेद करना कठिन है। कदाचित् आचार्य उपाध्याय की अनुपस्थिति में उसका स्थान ग्रहण करता था।" कम से कम बीस वर्षों की अवस्था होने पर और उचित योग्यता प्राप्त करने पर श्रामणेर उपसम्पदा का अधिकारी होता था। शिक्षापद
श्रामणेर के लिये दस शिक्षापद थे। ये शिक्षापद ही श्रामणेर के लिये आचार मार्ग थे। क्र०सं०] शिक्षा
निषेध १. अहिंसा २. | अचौर्य
| चोरी इन्द्रिय निग्रह
अइन्द्रिय निग्रह अमृषा वचन
मृषा वचन मद्य त्याग
मद्य ग्रहण मध्याह्न के बाद भोजन निषेध । मध्याह्न के बाद भोजन नृत्य, वाद्य आदि का त्याग नृत्य, वाद्य ग्रहण गन्ध, माल्य, विलेपन निषेध गन्ध, माल्य, विलेपन
ऊँची और बहुमूल्य शय्या त्याग | ऊँची और बहुमूल्य शय्या । १०. | स्वर्ण, रजत आदि अग्रहण स्वर्ण, रजत ग्रहण
हिंसा
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